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साहित्य अकादमी द्वारा आज यानि शुक्रवार को हिंदी के प्रतिष्ठित नाट्यकार वीरेन्द्र नारायण की जन्मशतवार्षिकी के अवसर पर एक संगोष्ठी का आयोजन किया गया। संगोष्ठी के उद्घाटन सत्र की अध्यक्षता प्रतिष्ठित रंग आलोचक एवं राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय (NSD) के पूर्व निदेशक देवेंद्र राज अंकुर ने की। इस सत्र के मुख्य अतिथि हिंदी के प्रतिष्ठित आलोचक ज्योतिष जोशी एवं विशिष्ट अतिथि प्रख्यात रंगकर्मी एवं एनएसडी रंगमंडल के प्रमुख राजेश सिंह थे। स्वागत वक्तव्य साहित्य अकादमी के सचिव के.श्रीनिवासराव द्वारा दिया गया। परिचयात्मक वक्तव्य वीरेन्द्र नारायण जी के सुपुत्र विजय नारायण ने प्रस्तुत किया।
अपने स्वागत वक्तव्य में सभी अतिथियों का स्वागत करते हुए साहित्य अकादमी के सचिव के.श्रीनिवासराव ने कहा कि साहित्य अकादमी का हमेशा यह प्रयास रहता है कि वह उन सभी महत्त्वपूर्ण साहित्यकारों की प्रतिभा और ज्ञान का सम्मान करे जो देश के दूरदराज़ इलाकों में भी साहित्य के विकास के लिए कार्यरत रहे हैं। वीरेन्द्र नारायण भी एक ऐसे ही प्रतिभाशाली साहित्यकार थे। जिन्होंने 20 से ज़्यादा नाटक लिखे और नाट्य आलोचना तथा पत्रकारिता के क्षेत्र में भी महत्त्वपूर्ण कार्य किया।
अपने अध्यक्षीय वक्तव्य में देवेंद्र राज अंकुर ने उनकी पुस्तक ‘रंगकर्म’ की चर्चा करते हुए कहा कि यह पुस्तक अपने आप में बहुत महत्त्वपूर्ण है क्योंकि उस समय तक रंगकर्म के लिए बैकस्टेज की इतनी समग्र जानकारी देने के लिए कोई पुस्तक उपलब्ध नहीं थी। उन्होंने उनके चिंतन पक्ष के कुछ पहलुओं की तरफ़ इशारा करते हुए कहा कि उन्होंने बहुत पहले यह कह दिया था कि नाटक के लिए केवल संवाद ही ज़रूरी नहीं है बल्कि उसमें काव्यात्मकता भी होना आवश्यक है। उन्होंने जयशंकर गुप्त के नाटक ‘स्कंदगुप्त’ पर उनके विशद अध्ययन का उल्लेख करते हुए कहा कि किसी ने भी एक नाटक पर इतना महत्त्वपूर्ण कार्य आज तक नहीं किया है। उन्होंने कहा कि अब यह खोजबीन ज़रूरी है कि उन्हें हिंदी समाज ने नज़रअंदाज़ क्यों किया?

मुख्य अतिथि के रूप में बोलते हुए ज्योतिष जोशी ने कहा कि वीरेन्द्र नारायण की रंगमंचीय समझ वैश्विक थी। उनके द्वारा लिखे गए नाटक आज भी समकालीन हैं। उन्होंने वीरेन्द्र जी के उस कथन को भी रेखांकित किया जिसमें वे उस पारंपरिक सोच पर कटाक्ष करते हुए कहते हैं कि रंगमंच को नाटक के लिए ख़ुद तैयार होना चाहिए न कि नाटक रंगमंच के अनुसार लिखा जाना चाहिए। आगे उन्होंने कहा कि वीरेन्द्र जी की इस अहम चिंता को हमें सामने लाकर काम करना चाहिए। विशिष्ट अतिथि राजेश सिंह ने उनके नाटकों के व्यावहारिक पक्ष पर बात करते हुए कहा कि वह पहले नाट्यकार थे जिन्होंने नाटकों को ग्रामीण सरोकारों से जोड़ने की बात कही। उन्होंने उनकी पुस्तक रंगकर्म की विशिष्टता के बारे में भी बताया। वीरेन्द्र नारायण जी के पुत्र ने उनके कई रोचक संस्मरण सुनाते हुए कहा कि उनकी प्रवृत्ति कम पैसे से ज़्यादा से ज़्यादा काम करने की थी जो उनके नाटकों की प्रस्तुतियों में बहुत काम आई। उन्होंने उनके द्वारा स्वतंत्रता संग्राम के दौरान क़ैदी के रूप में नाटक लिखने और वहाँ उसके मंचन के बारे में भी बताया।

दूसरे सत्र की अध्यक्षता प्रख्यात पत्रकार एवं नाट्य समीक्षक रवींद्र त्रिपाठी ने की और प्रकाश झा एवं बीना नारायण ने अपने विचार व्यक्ति किए। प्रकाश झा ने मधुबनी में अपने रंगकर्मीय जीवन के अनुभवों को साझा करते हुए बताया कि उनके द्वारा लिखित पुस्तक रंगकर्म से उन्होंने बहुत कुछ सीखा और आज तक सीख रहे हैं। उनकी पुत्रवधू बीना नारायण ने उनके पारिवारिक जीवन की स्मृतियों को साझा करते हुए कहा कि बाबूजी को बाग़बानी, जानवरों और बच्चों से बेहद प्यार था। उन्होंने एक सफल और संतुष्ट जीवन जिया। सत्र के अध्यक्ष रवींद्र त्रिपाठी ने कहा कि कोई भी रंगकर्म भारतीय नहीं होता बल्कि अपने स्वरूप में वैश्विक होता है। रंगकर्म के इसी विस्तृत दायरे के कारण वीरेन्द्र जी सब कुछ बेच कर लंदन रंगकर्म की पढ़ाई करने गए थे। उन्होंने अपने नाटकों और अनुवाद के समय भी यह ध्यान रखा कि कैसे वैश्विकता को स्थानीय पहचान दी जा सकती है। कार्यक्रम में वीरेन्द्र नारायण के परिवार के कई सदस्य उपस्थित थे। साथ ही रंगकर्मी एवं नाट्यलेखक भी उपस्थित थे। कार्यक्रम का संचालन साहित्य अकादमी के उपसचिव देवेंद्र कुमार देवेश ने किया।
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