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जहां चाह है तो वहीं राह है

किसी भी काम को करने के लिए सबसे पहले उसकी प्लानिंग करनी पड़ती है

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प्रसिद्ध रंगकर्मी, मैथिली और हिंदी की कथाकार, अनुवादक, अभिनेत्री और सामाजिक कार्यकर्ता विभा रानी बहुमुखी प्रतिभा की धनी हैं। यही वजह है कि वह एक साथ कई काम को बखूबी अंजाम देती हैं। उन्होंने कैंसर जैसी बीमारी को हराया है और आज भी वह लोगों को कैंसर के प्रति जागरूक करने में अहम भूमिका निभा रही हैं। वे अभी तक बाइस किताबें लिख चुकी हैं। इसके अलावा वे फिल्म लाल कप्तान और महारानी वेब सीरीज में भी अभिनय कर चुकी हैं। अभी हाल ही में उनको नेमिचंद्र जैन नाट्य लेखन पुरस्कार से नवाजा गया है। कथा सम्मान, मोहन राकेश सम्मान सहित अनेक पुरस्कारों से सम्मानित विभा जी सोशल मीडिया पर भी बड़ी बिंदी के नाम से एक कार्यक्रम चला रही हैं। जो काफी सराहा जा रहा है। विभा रानी से मौजूदा परिस्थितियों और उनके काम पर हुई बातचीतः-

इस लाॅकडाउन में अपने समय का इस्तेमाल आपने कैसे किया?
नौकरी में रहने के कारण समय की कमी की वजह से जो काम नहीं कर पाई थी उसे पूरा करने का मौका मिला। इस महामारी को लेकर पहले बहुत भय होता था, लेकिन समय के साथ-साथ सब सामान्य हो गया। आज से सौ साल पहले भी इसी तरह की महामारी हमारे यहां आई थी और बहुत लोग मौत के मुंह में चले गए थे। मैं ऑनलाइन क्लास भी चलाती हूं। एक है यूटयूब चैनल पर बोले विभा में सामाजिक विषयों पर बातचीत और ‘बीबी का मेल किचन’ जिसमें सिर्फ पुरूष ही आकर खाना बनाते हैं। इसके द्वारा पुरूष रसोई को बढ़ावा देना है।

इतने सारे काम आप कैसे कर लेती हैं?
किसी भी काम को करने के लिए सबसे पहले  उसकी प्लानिंग करनी पड़ती है। मैं एक साथ तीन-चार काम करती रहती हूं, क्योंकि व्यर्थ में मैं अपना समय गवाती नहीं हूं। इससे मेरा बहुत सारा समय बच भी जाता है और मेरा दिमाग भी शांत रहता है। दूसरी सबसे अहम बात है कि जो काम मैं कर सकती हूं तो उसे जरूर करती हूं और जो नहीं कर सकती हूं तो उधर देखती भी नहीं हूं।

अपने घर,परिवार और बचपन के बारे में बताएं?
मैं बिहार के मधुबनी जिले की रहने वाली हूं। मेरे माता-पिता दोनों टीचर थे। घर में पढ़ने लिखने का माहौल था। मेरी मां उस जमाने की गोल्ड मेडलिस्ट थीं और मैं छह भाई-बहन में सबसे छोटी थी। मैं अपनी मां के बिना रह नहीं पाती थी। इसलिए हमेशा उनके पीछे-पीछे घूमती रहती थी। यहां तक कि अपने क्लास से भी निकल कर उनको देखने के लिए जाया करती थी कि वे अपनी कुर्सी पर हैं या नहीं, क्योंकि मां भी उसी स्कूल में प्रिंसिपल थीं।

लिखने की शुरुआत कब से हुई और दूसरी विधाओं में रूचि कैसे हुई?
शुरुआत तो कविता से ही हुई थी। 1981 में मेरी एक कहानी मैथिली में छपी थी। जो मील का पत्थर साबित हुई। फिल्म देखकर अभिनय में रूचि हुई। मैं किसी का भी नकल आराम से कर लेती थी। कुछ अलग करके दिखाने का मन हुआ तो एकमात्र दर्शक मेरी बड़ी बहन हुआ करती थी। जब दरभंगा में ऑल इंडिया रेडियो स्टेशन खुला तो मैंने वहां डामा आर्टिस्ट के रूप में ज्चाइन की किया था, क्योंकि उन दिनों हमारे यहां अभिव्यक्ति का कोई दूसरा साधन नहीं था। हालांकि मैं पढ़ाई में बहुत होशियार थी।
जब मैं बीए में थी। तभी पिताजी का निधन हो गया था। पिताजी के नहीं रहने से मां बहुत कमजोर हो गईं थीं। उस समय आगे की पढ़ाई के लिए मैं जेएनयू जाना चाहती थी, पर नहीं जा सकी। उसके बाद मैं भागलपुर से पढ़ाई करना चाहती थी। वह भी संभव नहीं हुआ। अंत में मैंने दरभंगा से ही एमए की पढ़ाई पूरी की। मैं बनना तो बहुत कुछ चाहती थी, पर उसकी इजाजत घर में नहीं थी। मुझे जो रास्ता मिला उसी पर आगे बढ़ती चली गई। अगर अपनी राह बनानी है तो उसके लिए हिम्मत भी चाहिए।

एक छोटे से जगह से निकलकर अपने सपनों को पंख देना कितना मुश्किल रहा?
किसी भी लड़की के लिए आसान डगर नहीं होता है। फिर भी जहां चाह है तो वहीं राह है। दरभंगा से निकलकर कोलकाता, दिल्ली और मुंबई गई। अनुभव के साथ-साथ मेरा दायरा भी बढ़ता गया। जैसी परिस्थितियां आई अपने को एडजस्ट किया। रचनात्मक कार्य करने वालों के लिए उम्र का कोइ बंधन नहीं होता है। लोगों को मंच देने के लिए मैंनें रूम थियेटर शुरू किया है। एक शो करने में डेढ़ लाख लग जाता है। आज मेरे मेहनत का ही फल है कि सरकारी और गैर सरकारी सोलो थियेटर कर रहे हैं।

आपके जीवन में आध्यात्मिकता की क्या भूमिका रही है?
मेरे लिए यह उतनी ही है जैसे सब्जी में नमक। मैं पूजा-पाठ में भरोसा नहीं करती हूं। लेकिन तीज और दीवाली पर जरूर पूजा करती हूं। मैंने रामायण और महाभारत भी पढ़ी है। मंदिर भी जाती हूं। आध्यात्म अपने मन को एकाग्र और शांत करने का आस्था है।

क्या रचनात्मकता और नैतिकता का कोई संबंध है?
बिल्कुल है। आज लोगों के कथनी और करनी में बहुत अंतर है। ऐसी भी महिलाएं हैं जो नारी विमर्श पर भाषण तो बहुत देती हैं और उसके बारे में बातें भी खूब बनाती हैं।

आपके लिए स्वतंत्रतता का क्या महत्व है?
हमारे लिए तो बहुत ही महत्व है कि हम अपने को पहचान सकें। महिलाओं को भी अपने बारे में सोचना चाहिए कि हम क्या हैं। उच्श्रृखलंता नहीं होनी चाहिए। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रतता जरूर होनी चाहिए।

अब तक के जिंदगी से आपने क्या अनुभव किया है?
जिंदगी एक पाठशाला है। अभी भी मैं इस पाठशाला में सीख ही रही हूं। हम अपनी सफलता और असफलता दोनों से ही कुछ न कुछ सीखते ही हैं। जीवन अपने आप में एक अनुभव का खजाना है।

ज्ञान और भक्ति में आप किसे बड़ा मानती हैं और क्यों?
ज्ञान कभी अंधा नहीं होता है। जबकि भक्ति अंधी भी होती है। ज्ञान भक्ति को संचालित करती है।

यह विश्व भी एक रंगमंच है और आप अपने पार्ट को किस तरह देखती हैं?
जितने दिन जीना है अपने काम को अच्छे से करना है। जो भी मैं जानती और समझती हूं उसे दूसरे तक पहुंचाना है, क्योंकि इस दुनिया से विदा लेने का न किसी को तारीख और न समय का कुछ भी पता नहीं रहता है।
प्रस्तुति-संध्या रानी

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