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अधूरापन: एक कविता जो रचती हैं रिश्तों की गहराई को

कविताओं के रंग, दामिनी के संग

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अधूरापन..
मुझे इंकार है हर उस सूरज के साथ से
जहां मैं सूरजमुखी बनी उसे निहारना ही अपना फ़र्ज़ पाऊं
बदलती रहूं अपनी दिशाएं, उसकी दिशाओं के मुताबिक
न समझूं, न जानूं, न अपनी दिशाएं पहचान पाऊं,
मुझे इंकार है हर उस चांद के साथ से
जिसकी ठंडक की कीमत मैं ठहरी झील बन चुकाऊं
भले ही सुलगा हो तन भी, मन भी
पर ठहरकर मैं क्यों आईना बन चांद का
खुद में उठते भंवर के बीच, उसे निहारने तक सिमट जाऊं,
मुझे इंकार है मौसमी बरसाती रात से
हर झुलसता दिन मेरे हिस्से आए
और बादल तब बरसे, जब उसका जी चाहे
मैं अपने ग़ुबार को ही ओढ़ लूंगी, बिछा लूंगी
बूंदें बारिश की हों या ठंडक चांद की
जब मैं चाहूंगी, तभी कपाट खोल उन्हें भीतर आने दूंगी,
मेरी सलवटों को तुम भी तब ही तो मिटा पाओगे
जब मैं तुममें समाऊंगी, तुम मुझमें समाओगे
एक पहल से नहीं पूरी होती कोई पूर्ति
ये जिस्म भी पूरा तब होगा
जब आधा मैं अपने को, आधा तुम अपने को मिटाओगे
फिर क्यों हर कहानी में तुम रहो पूरे, मैं अधूरी
बिना मेरे अधूरेपन को भरे तुम भी अधूरी कहानी ही बन जाओगे…
@ दामिनी यादव
 
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