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मन के बदलते रंग….
कविताओं के रंग, दामिनी के संग
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मन के बदलते रंग
शाम तक सुबह का इंतज़ार
सोए भी देर तलक मगर
आंखों की जलन कुछ कम न हुई,
ख़्वाब तो मुकम्मल क्या होते
जीने की हसद भी जाती रही,
राहतों लौट आओ!
लौट के दिल में बस जाओ
ऐसा भी गुनाह क्या कर बैठे
इतना भी ज़ुलम क्या ढाया था
कुछ प्यार ही तो किया था ख़ुद से
कुछ अपना वजूद ही तो चाहा था
हिम्मत को समझा था हालात से ऊपर
बस हौसला ही तो आज़माया था
ले टूट भी गए, ले बिखर भी चुके
ज़िंदगी! तू भी निकली दुनिया सी
तुझे भी झुका हुआ सर भाया था
गर हम भी ठुकरा दें तुझको,
तेरे ग़ुरूर का क्या होगा?
तू अपनी होकर भी अपनी न थी
ज़िंदगी! साथ बस हमने निभाया था,
अब हम भी तुझसे थकने लगे
अब हम भी तेरे तलबगार नहीं
जा रख ले अपने ख़्वाब तमाम
अब इन आंखों में जगह नहीं…
@ दामिनी यादव
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