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साहित्य अकादेमी द्वारा पंडित विद्यानिवास मिश्र की जन्मशतवार्षिकी के उपलक्ष्य में आयोजित दो दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी का समापन आज हो गया। इस संगोष्ठी में विद्यानिवास मिश्र के बहुआयामी व्यक्तित्व और कृतित्व पर विद्वानों द्वारा गहन विमर्श किया गया। संगोष्ठी में कुल तीन सत्र आयोजित किए गए, जिनमें मिश्र जी के कला चिंतन, परंपरा-बोध, लोकसंस्कृति और साहित्य पर विशेष चर्चा हुई।
पहला सत्र: विद्यानिवास मिश्र का कला चिंतन
संगोष्ठी के पहले सत्र की अध्यक्षता प्रख्यात विद्वान नर्मदा प्रसाद उपाध्याय ने की। इस सत्र में माधव हाडा और ज्योतिष जोशी ने अपने विचार व्यक्त किए।
ज्योतिष जोशी ने कहा कि पं. विद्यानिवास मिश्र की कला दृष्टि अत्यंत व्यापक और गहन थी। वे पारंपरिक कला दृष्टिकोण के प्रबल पक्षधर थे और मानते थे कि कला समाज की सामूहिक चेतना का प्रदर्शन करती है। उन्होंने भारतीय कला को नैतिकता और भारतीय मनीषा के संदर्भ में देखा और परखा।
माधव हाडा ने अपने वक्तव्य में कहा कि भारतीय कला की जड़ें मिथकों में हैं और ये मिथक निरंतर रूपांतरित होते रहते हैं। मिश्र जी का मानना था कि भारतीय कला में कोई एकरूपता नहीं है, बल्कि विविधता ही उसकी पहचान है।
अध्यक्षीय वक्तव्य में नर्मदा प्रसाद उपाध्याय ने कहा कि मिश्र जी कला के इतने निकट थे कि कला उनमें मूर्त हो गई थी। उन्होंने खजुराहो के शिल्पों को “संभावना के शिल्प” की संज्ञा दी और कालिदास के माध्यम से भारतीय कला परंपरा को व्याख्यायित किया।
दूसरा सत्र: भारतीय परंपरा के संवाहक – विद्यानिवास मिश्र
इस सत्र की अध्यक्षता नंदकिशोर आचार्य ने की, जिसमें चित्तरंजन मिश्र, राधावल्लभ त्रिपाठी और वागीश शुक्ल ने अपने शोध आलेख प्रस्तुत किए।
वागीश शुक्ल ने ऑनलाइन जुड़ते हुए कहा कि मिश्र जी संस्कृत के गहरे विद्वान होते हुए भी पश्चिमी अवधारणाओं के भी गंभीर अध्येता थे। वे वेद, लोक, संस्कृत, हिंदी और संस्कृति को एक ही दृष्टिकोण से देखते थे।
चित्तरंजन मिश्र ने कहा कि मिश्र जी ने औपनिवेशिक प्रभावों के विपरीत भारतीय परंपरा को अपनी लेखनी का आधार बनाया।
राधावल्लभ त्रिपाठी ने बताया कि मिश्र जी लोकशास्त्र में ‘लोक, वेद और अध्यात्म’ को तीन प्रमाण मानते थे। वे परंपराओं को स्थिर नहीं मानते थे, बल्कि उन्हें लगातार नवीन करते रहने के पक्षधर थे।
अध्यक्षीय वक्तव्य में नंदकिशोर आचार्य ने कहा कि भारतीय परंपरा मूलतः ‘ऋत्’ पर आधारित है। विद्यानिवास मिश्र ‘पाँच ऋण’ और ‘पाँच महायज्ञ’ की बात करते हैं और ऋण को चुकाने का भाव सामाजिक जुड़ाव का माध्यम मानते हैं। उन्होंने भारतीय परंपरा में जैन और बौद्ध धर्म को न जोड़े जाने पर भी सवाल उठाया।
तीसरा सत्र: लोकसंस्कृति और आलोचना साहित्य में विद्यानिवास मिश्र
इस अंतिम सत्र की अध्यक्षता रामदेव शुक्ल ने की, जिसमें सुरेंद्र दुबे, कृष्ण कुमार सिंह, विद्याबिंदु सिंह, और अनुराधा गुप्ता ने अपने विचार प्रस्तुत किए।
कृष्ण कुमार सिंह ने कहा कि मिश्र जी का गद्य देश के सर्वश्रेष्ठ गद्य साहित्य में गिना जाता है। वे भारतेंदु मिश्र और हजारी प्रसाद द्विवेदी की परंपरा के वाहक थे।
विद्याबिंदु सिंह ने मिश्र जी द्वारा शिष्य परंपरा के संवर्धन पर जोर दिया और उनके लेखन में लोक चरित्र की मिठास को रेखांकित किया।
सुरेंद्र दुबे ने कहा कि मिश्र जी का लोक केवल अतीत नहीं, अपितु एक सतत् गतिशील परंपरा है। उनका साहित्य लोक से ही पोषित है और लोक का शास्त्रीय रूपांतरण उसमें दिखाई देता है।
रामदेव शुक्ल ने अध्यक्षीय वक्तव्य में कहा कि मिश्र जी ने विद्वता का कभी दंभ नहीं पाला। उन्होंने पूरे भारत में अपने साहित्य को ‘स्वदेश’ के रूप में पहुँचाया।
संगोष्ठी में रही विद्वानों की उपस्थिति
इस दो दिवसीय आयोजन में बड़ी संख्या में साहित्यकारों, विद्यार्थियों, शोधार्थियों और पत्रकारों की उपस्थिति रही। कार्यक्रम का सफल संचालन साहित्य अकादेमी के उप सचिव देवेंद्र कुमार देवेश ने किया।
यह संगोष्ठी न केवल विद्यानिवास मिश्र के व्यापक योगदान को याद करने का अवसर बनी, बल्कि भारतीय परंपरा, लोक संस्कृति और कला के प्रति उनकी दृष्टि को समझने का एक सशक्त मंच भी सिद्ध हुई।
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