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Global Water Congress: वर्षा जल संचयन समय की मांग है-ज्ञानेन्द्र रावत

भूजल पानी का महत्वपूर्ण स्रोत है। पृथ्वी पर होने वाली जलापूर्ति अधिकतर भूजल पर ही निर्भर है। लेकिन वह चाहे सरकारी मशीनरी हो, उद्योग हो, कृषि क्षेत्र हो या आम जन, सभी ने इसका इतना दोहन किया है जिसका नतीजा भूजल के लगातार गिरते स्तर के चलते जल संकट की भीषण समस्या के रूप में हमारे सामने है।  

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आज जल संकट समूचे विश्व की गंभीर समस्या है। हालात इतने खराब हैं कि दुनिया के 37 देश पानी की भारी किल्लत का सामना कर रहे हैं। इनमें सिंगापुर, पश्चिमी सहारा, कतर, बहरीन, जमायका, सऊदी अरब और कुवैत समेत 19 देश ऐसे हैं जहां पानी की आपूर्ति मांग से बेहद कम है। दुख की बात यह है कि हमारा देश इन देशों से सिर्फ एक पायदान पीछे है। असलियत यह है कि दुनिया में पांच में से एक व्यक्ति की साफ पानी तक पहुंच ही नहीं है। यह सब सेवा एवं उद्योग क्षेत्र से योगदान बढ़ने के कारण घरेलू और औद्यौगिक क्षेत्र में पानी की मांग में उल्लेखनीय बढो़तरी का नतीजा है। यह विचार आज विश्व जल दिवस के उपलक्ष्य में इन्वायरमेंट सोशल डवलपमेंट ऐसोसिएशन दिल्ली द्वारा आयोजित तीन दिवसीय कार्यक्रम में राजकुमार गोयल इंस्टीट्यूट आफ टैक्नालाजी, गाजियाबाद के सभागार में ग्लोबल वाटर कांग्रेस के तकनीकी सत्र के दौरान वरिष्ठ पत्रकार, लेखक, पर्यावरणविद एवं राष्ट्रीय पर्यावरण सुरक्षा समिति के अध्यक्ष ज्ञानेन्द्र रावत ने व्यक्त किये।
          उन्होंने कहा कि कितनी दुखदायी स्थिति है कि दुनिया में नदियों के मामले में सबसे अधिक सम्पन्न हमारे देश की तकरीब साठ करोड़ से ज्यादा आबादी पानी की समस्या से जूझ रही है। और देश के तीन चौथाई घरों में पीने का साफ पानी तक मयस्सर नहीं है। देश की यह स्थिति तब है जबकि यहां मानसून बेहतर रहता है। और यदि जल गुणवत्ता की बात की जाये तो इस मामले में हमारा देश 122 देशों में 120 वें पायदान पर है। यह हमारी पानी के मामले में बदहाली का सबूत है। इसका सबसे बडा़ कारण कारगर नीति के अभाव में जल संचय, संरक्षण व प्रबंधन में नाकामी है। इसी का खामियाजा समूचा देश भुगत रहा है।
          यह सच है कि भूजल पानी का महत्वपूर्ण स्रोत है। पृथ्वी पर होने वाली जलापूर्ति अधिकतर भूजल पर ही निर्भर है। लेकिन वह चाहे सरकारी मशीनरी हो, उद्योग हो, कृषि क्षेत्र हो या आम जन, सभी ने इसका इतना दोहन किया है जिसका नतीजा भूजल के लगातार गिरते स्तर के चलते जल संकट की भीषण समस्या के रूप में हमारे सामने है। इससे पारिस्थितिकी तंत्र के असंतुलन की स्थिति पैदा हो गयी है। यह इस बात का संकेत है कि आने वाले दिनों में स्थिति कितनी विकराल हो सकती है। इसे उसी स्थिति में रोका जा सकता है जबकि पानी समुचित मात्रा में रिचार्ज हो, ग्रामीण और शहरी दोनों क्षेत्रों में पानी का दोहन नियंत्रित हो, संरक्षण हो, भंडारण हो ताकि वह जमीन के अंदर प्रवेश कर सके।
          सवाल यह अहम है कि जिस देश में भूतल व सतही विभिन्न माध्यमों से पानी की उपलब्धता 2300 अरब घनमीटर है और जहां नदियों का जाल बिछा  हो, जहां सालाना औसत बारिश 100 सेमी से भी अधिक होती है, जिससे 4000 अरब घनमीटर पानी मिलता हो, वहां पानी का अकाल क्यों है? असलियत में बारिश से मिलने वाले पानी में से 47 फीसदी यानी 1869 अरब घनमीटर पानी नदियों में चला जाता है। इसमें से 1132 अरब घनमीटर पानी उपयोग में लाया जा सकता है। इसमें से 37 फीसदी उचित भंडारण-संरक्षण के अभाव में समुद्र में बेकार चला जाता है। जाहिर सी बात है कि यदि इसी को रिचार्ज के लिए एक सोची समझी नीति के तहत उसका आकलन कर भविष्य में उपयोग की दृष्टि से संरक्षण किया जाये तो देश में पानी का कोई संकट नहीं होगा। सच तो यह है कि इसे बचाकर काफी हदतक पानी की समस्या का हल निकाला जा सकता है। जबकि सदियों से हमारे देश में मनुष्य और प्रकृति के द्वारा जल का संचय होता आया है। इसमें सरकारी तंत्र पर समाज के आश्रित हो जाने ने अहम भूमिका निबाही। इसका परिणाम जल प्रबंधन में सामुदायिक हिस्सेदारी के पतन के रूप में सामने आया। नतीजतन तभी से प्रकृति भी विवश हो गयी। असलियत में यह सब जल संचय के हमारे परंपरागत तरीकों की अनदेखी, झीलों-तालाबों और कुओं पर अतिक्रमण, नदी और भूजल स्रोतों का प्रदूषण, अत्याधिक पानी वाली फसलों के उत्पादन की बढ़ती चाहत, पानी की बरबादी, बारिश के जल का उचित संरक्षण न होना, भूजल के अत्याधिक दोहन के चलते भूजल स्तर में भयावह स्तर तक गिरावट,  जल प्रबंधन का अभाव, जल संचय व संरक्षण में समाज की भागीदारी का पूर्णतः अभाव,  छोटे शहरों में अधिकांशतः जमीनी सतह का पक्का कर दिया जाना, अनियंत्रित, अनियोजित औद्यौगिक विकास और विकास के वर्तमान ढांचे की अंधी दौड़ ने हमारी धरती को बंजर बनाने और पाताल के पानी के अत्याधिक दोहन में अहम भूमिका अदा की है। फिर पानी के मामले में मांग की बढो़तरी और जल उपलब्धता में आयेदिन हो रही बेतहाशा कमी के साथ हमारी जीवनशैली में हुआ बदलाव सबसे बडा़ अहम कारक है। ऐसी स्थिति में वर्षाजल संरक्षण और उसका प्रबंधन ही एकमात्र रास्ता है। पानी देश और समाज की सबसे बडी़ जरूरत है। आइये हय भूजल रिचार्ज प्रणाली पर विशेष ध्यान दें और बारिश के जल का संचय कर देश और समाज के हितार्थ अपनी भूमिका का सही मायने में निर्वाह करें। जल संचय के पारंपरिट तौर तरीकों के इस्तेमाल की भूमिका अहम होगी जिसे हम बिसार चुके हैं। उसी दशा में इस समस्या से छुटकारा मिल सकता है।
          इस ज्वलंत विषय पर चर्चा के लिए जल विशेषज्ञों और पर्यावरणविदों को एक मंच पर एकत्रित कर संवाद के लिए ईएसडीए की प्रबंध समिति, इसके प्रमुख डा. जितेन्द्र नागर व राजकुमार गोयल इंस्टीट्यूट बधाई की पात्र है। इनका यह प्रयास स्तुतियोग्य है, प्रशंसनीय है। सबसे बडी़ बात कि ऐसे अवसर पर डा. नागर द्वारा मुझ जैसे पर्यावरण कार्यकर्ता को विचार रखने के लिए आमंत्रित किया, इस हेतु मैं उनका हृदय से आभारी हूं। भविष्य में वह ऐसी पुण्यकामी गतिविधियां निरतंर संचालित करते रहें, यही कामना करता हूं।
          इस अवसर पर आईआईएमटी कालेज आफ पालीटैक्निक, ग्रेटर नौएडा के डायरैक्टर प्रोफेसर उमेश कुमार, डा.भीमराव अम्बेडकर कालेज, दिल्ली के एसोसिएट प्रोफेसर डा.अरविंद यादव, डा.रविन्द्र सिंह, अर्थ जर्नलिज्म नेटवर्क व लंदन स्थित प्रेस क्लब के सद्स्य, प्रोजेक्ट डायरेक्टर प्रवीन भारद्वाज,एम एम एच कालेज गाजियाबाद के एसोसिएट प्रोफेसर व समाज विज्ञानी डा.राकेश राणा ने अपने विचार व्यक्त किये। डा. राकेश राणा ने अपने संबोधन में जल की महत्ता, समाज के जुडा़व, अंग्रेजों द्वारा नदी, जल और वन कानून लागू करने की नीति के चलते सामाजिक सरोकारों के प्रति समाज की उपेक्षा, संसाधनों को लाभ का स्रोत बना दिये जाने, प्रकृति से विलगाव के कारणों पर प्रकाश डाला, वहीं तकनीक के इस मुश्किल दौर में इन मुद्दों पर विचार की आवश्यकता और समाज और संस्कृति के बीच के अंतर को पाटने पर बल दिया। डा.रविन्द्र सिंह ने अपने सारगर्भित वक्तव्य में जहां भूगर्भीय जल के संरक्षण के वैज्ञानिक दृष्टिकोण पर प्रकाश डाला, वहीं प्रवीन भारद्वाज ने प्रकृति के साथ सामंजस्य पर बल देते हुए कहा कि जीवन जल से ही शुरू होता है और अंत भी उसी से होता है। जल संकट की भयावहता में उत्तर और पूर्व में काफी भिन्नता है। भूमिगत जल के प्रदूषण की विकरालता पर उन्होंने तथ्यपरक विश्लेषण किया और कहा कि भूमिगत जल के प्रदूषण में समय के साथ काफी बदलाव आया है। जर्मनी में राइन नदी की सहयोगी नदी की चर्चा करते हुए उन्होंने कहा कि वहां के लोग जब उसे पुनर्जीवित कर सकते हैं तो क्या हम अपनी नदियों को पुनर्जीवन नहीं दे सकते। यह संकल्प और प्रकृति के साथ जुडा़व से ही संभव है। प्रोफेसर उमेश कुमार ने जहां भूजल के गिरते स्तर के चलते पारिस्थातिकी असंतुलन व भूगर्भीय हलचलों के कारणों की चर्चा की, वहीं डा. अरविंद यादव ने जल के अपव्यय पर विस्तार से प्रकाश डाला तथा दैनंदिन जीवन में जल के संरक्षण पर बल दिया।
          अंत में आयोजक व ईएसडीए के प्रमुख डा. जितेन्द्र नागर ने सभी उपस्थित जनों का हृदय से आभार व्यक्त किया और उपस्थित छात्र-छात्राओं से आह्वान किया कि वे आज यहां से प्रेरणा लेकर अपने जीवन में कुछ ऐसा विलक्षण कार्य करें जो देश और समाज में एक मिसाल हो जिससे लोग जल संकट के इस दौर में प्रकृति और प्रकृति प्रदत्त संसाधनों का यथोचित सम्मान कर समाज को नयी दिशा देकर अपने राष्ट्रीय दायित्व का निर्वहन करते हुए इस समस्या के निदान में अपना योगदान दें। यही सच्ची राष्ट्र सेवा होगी।
          इस अवसर पर दिल्ली टैक्नोलाजिकल यूनीवर्सिटी के बायो टैक्नोलाजी डिपार्टमेंट के हैड प्रो.जयगोपाल शर्मा, ईएसडीए की उपाध्यक्ष डा.गीतांजलि सगीना, डा. कविता खटाना, पर्यावरणविद  प्रशांत सिन्हा,आई आई टी दिल्ली के प्रो. ऐ.के.केसरी, नेशनल इनवायरमेंट साइंस ऐकेडेमी के प्रो.जावेद अहमद सहित भारी संख्या में पर्यावरण विज्ञानी, पर्यावरण विज्ञान के प्रोफेसर्स, रिसर्च स्कालर व राजकुमार गोयल इंस्टीट्यूट आफ टैक्नोलाजी के प्रोफेसर्स, छात्र व दिल्ली विश्वविद्यालय के विभिन्न कालेजों के छात्र-छात्राओं आदि की उपस्थिति विशेष रूप से उल्लेखनीय थी।
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