पर्यटनमेरे अलफ़ाज़/कविता
म्यर पहाड़: घर बुलाती देवभूमि की पुकार
दिल्ली की भागदौड़ से दूर—कुमाऊँ के गीत, संस्कृति, यादें और बचपन की महक से भरपूर एक भावनात्मक सफर

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आज का दिन कुछ खास था। मन में अलग प्रकार का उत्साह और ढेरों सवाल थे लेकिन मन इतना जानता था कि जब मैं लौटकर आऊंगी तो इन सभी सवालों का जवाब मेरे पास होगा। आज का सफर था मेरे अपने उत्तराखंड का। जहाँ कहा जाता है कि देवों का वास होता है। सफर शुरू होने ही वाला था और ऐसा लग रहा था कि इस बार पहाड़ स्वयं बुला रहे हों।
बेडू पाको बारों मासा…
बस इतनी सी धुन कानों में पड़ी और अचानक लगा कि सफर शुरू होने से पहले ही मन पहाड़ पहुँच चुका है। दिल्ली की तेज रफ्तार, हॉर्सों की आवाज, भरी हवा के बीच यह कुमाऊँनी गीत एक ठंडी हवा सा लगा – याद, अपनत्व और पहाड़ों की सुगंध से भरा।
ट्रेन अपने गंतव्य स्थान की ओर आगे बड़ी और धीरे-धीरे दिल्ली की इमारतें पीछे छूट रही थी और पहाड़ अपने पूरे शबाब के साथ बुलावा दे रहे थे। कुछ समय बाद ट्रेन पहुँच चुकी थी हल्द्वानी अपने निर्धारित समय और स्थान पर। हल्द्वानी स्टेशन पर उतरते ही बातचीत का लहजा बदल गया और एक विशेष किस्म का अपनापन जो दिल्ली की भागदौड़ में बहुत पीछे छूट गया था मानो फिर से मिल गया हो।
“दाज्यू चहा पीछा? टपकी चहा ?”
सब ने रूककर चाय का आनंद उठाया। और फिर सफर आगे बड़ा हमारी चार पहिए वाली गाड़ी में। गाड़ी में बैठते ही ड्राइवर साहब ने लगा दिए पहाड़ी गीत।
“ ऐजा रे रंग रंगीलो मेरो कुमाऊँ…….”
गोपाल बाबू गोस्वामी की जादुई आवाज में हल्द्वानी से गाड़ी ने नई रफ्तार पकड़ी। यह सिर्फ एक गीत नहीं बल्कि कुमाऊँ का निमंत्रण है…
रंगीले पहाड़, रंगीली संस्कृति, और रंगीले लोग – सब मानो आवाज देकर कह रहे हों –
“चलो फिर से अपनेपन में लौट आओ।“
देखते देखते हम पहुँचे “केंची धाम”, मंदिर जिसको देखकर मुझे सिर्फ याद आया वहाँ का प्रसाद जो कई साल पहले खाया था। हमने गाड़ी के शीशे से ही हाथ जोड़कर अपने मन की बात “बाबा नीम करोरी”, तक पहुंचा दी। अब जैसे-जैसे गाड़ी ऊपर चढ़ने लगी, धुंध रास्ते से उतरने लगी। देवदार के पेड़ आसमान छूते दिखाई देने लगे।
मैंने वहीँ खड़े-खड़े मन में सोचा—
यहाँ धर्म सिर्फ पूजा नहीं… यहाँ धर्म हवा में है, पानी में है, पेड़ों में है।
रास्ते के मोड़ पर लोकगीत जैसा दृश्य दिखा—
छोटे-छोटे मंदिर, जिन पर लाल झंडियाँ हवा में फड़फड़ा रही थीं।
हर झंडे के पीछे कोई कहानी, कोई आस्था, कोई दुआ जुड़ी थी।
इसी धुंध में पापा ने गाना गुनगुनाया –
“ठंडो रे ठंडो मेरो पहाड़ की हवा ठंडी पानी ठंडो” ……
इस गीत ने हवा में अलग ही नृत्य भर दिया। मानो देवदार भी अपनी शाखाएँ हिलाकर नाच रहे हों। दिल्ली की थकान बिल्कुल गायब सी हो गई। बीच-बीच में छोटे-छोटे झरने जिनको पापा ने बताया कुमाऊँनी में ‘गाड़’ या ‘गधेरा’ कहा जाता है सफ़र की सुंदरता में चार चाँद लगा रहे हों।
अपने यहाँ की संस्कृति को इतने करीब से देखना और जानना मेरे लिए सच में सौभाग्य था। कुछ समय बाद गाड़ी रुकी एक ऐसी जगह जहां शहर से आए कई पर्यटक रूककर दिन का भोजन करते हैं। मुझे बताया गया कि यह स्थान अपने भोजन के कारण ही प्रसिद्ध है। जगह का नाम था “धौलछीना” मन में सवाल उठा कि सिर्फ यही जगय क्यों अपने खाने के लिए जानी जाती है। पर जब मेने खाना शुरू किया, जिस प्रेम से वहाँ खाना सभी को खिलाया जा रहा था मन के सभी सवाल अपने आप शांत हो गए। शहरों में घंटों इतज़ार और पैसे देने के बाद होटलों में खाना मिलता है और यहाँ घंटों गुजारने के बाद भी ऐसा लग रहा था की कितना ठहराव, कितना प्रेम है अपने उत्तराखंड में।
फिर सफर आगे बड़ा, अब हर मोड़ पर कोई ना कोई मंदिर, कोई न कोई गांव पड़ रहा था और लगने लगा था कि देवभूमि में प्रवेश हो चुका है। हर मोड़ के साथ देवभूमि का कोई नया रहस्य खुल जाता था। सड़क के किनारे एक छोटा-सा मंदिर दिखा—
“गोलू देवता” की खूबसूरत पेड़ के नीचे बनी मूर्ति।
किसी ने घंटी बांधी थी, किसी ने कागज़ पर अपनी मन्नते लिख कर टांगी थी।
मैंने जाना कि लोग यहाँ न्याय के देवता को चिट्ठियां लिखते हैं। मुझे वह दृश्य किसी लोककथा की तरह लगा—
जैसे देवता अभी भी इसी भूमि में घूमते हों।
कुछ समय और चलने के बाद हम पहुँच गए अपने गाँव ‘सेराघाट’। दूर से ही ‘सैम देवता’ का मंदिर दिखने लगा, नदी की कल कल धुन कानों को जैसे सुकून प्रदान कर रही हो। सड़क से ही अपने ग्राम देवता का मंदिर देख सिर झुकाकर हाथ जोड़े और अपने समान के साच पैदल घर की ओर बड़े। पापा चलते चलते मुझे बता रहे थे कैसे वह अपने बचपन में इन रास्तों से खेलते- कूदते जाया करते थे। मैंने देखा – पापा सिर्फ यादें नहीं दिखा रहे थे, वो अपना बचपन मुझे सौंप रहे थे। “गधेरे के ठंडे पानी में पैर भिगोते हुए हम पहुंचे अपने घर जहां मैंने देखा एक छोटी सी और बहुत सुनहरी दुनिया बस्ती है। कच्चे मकान, घर के पास में ही नदी है, चारों ओर हरियाली, आँगन में गाय और एक कोने में किचन बना हुआ था जिसको हर रोज लीपकर बनाया जाता है। शाम होते ही सभी आस-पास के लोग आँगन में एकत्र होकर गोना-गाकर पूजा कर रहे थे। और तुलसी के मंदिर को कुमाऊँ के लोक आर्ट – एंपड़ आर्ट, जो कि चावल और गेरू को पीसकर बनाया जाता है उसकी पूजा हुई। शाम का खाना खाकर सभी जल्दी सो गए।
रात को जब घर की छत में गई तो आसमान को देखकर मन में अलग प्रकार की शांति जागी।आसमान में तारों ने ऐसे चमकना शुरू किया – जैसे किसी ने काले मखमल पर चांदी बिखेर दी हो। मैंने आसमान की ओर देखा और दंग रह गई—
इतने तारे?
क्या ये तारे शहर में छुप जाते हैं या पहाड़ इन्हें अपने पास बुला लेते हैं?
ठंडी हवा चेहरे को हल्के से छूती हुई निकल रही थी।
दूर कहीं घाटी में कुत्तों के भौंकने की आवाज़,
नदी की धीमी-धीमी धुन और देवदार के पेड़ों में सरसराती हवा—
सब मिलकर रात को एक गीत बना रहे थे।
अगली सुबह काफल मिले। उत्तराखंड का प्रसिद्ध फल जिसको मैंने चखा – वह एक स्वाद नहीं था, वह बचपन का गौरव था। पापा ने कहा “बचपन में मैं काफल चोरी करता था। वह एक सच नहीं था बल्कि बचपन की यादों का एक हिस्सा था। कुछ समय बाद मैंने गांव की औरतों को अपने अपने खेतों में जाते देखा, कितने खुश थे वह लोग अपनी मेहनत की फसल को देखकर।
वहीं पापा ने गाना गाया
“मैं घास काटूनों तू पूवा बांधेली “
और यह सुनकर सब के चेहरे पर मुस्कान आई। इस गाने को अक्सर गाया जाता था जब ‘असोज’ के महीने में औरतें घास काटती थी और उनके साथ पुरुष उनकी मदद के रूप में घास के पूवे बनाते थे।
पापा मुझे अपने बचपन के खेत दिखाने ले गए।
रास्ते में उनके कदम भारी थे, पर आँखों में चमक भी थी—
जैसे कोई अपने खोए हुए हिस्से को फिर से छूने जा रहा हो।
हम जैसे ही खेतों तक पहुँचे,
पापा पल भर के लिए रुक गए और कहा यहां कभी मैं अपने ‘बल्द’ लेकर आता था। पहाड़ की हवा में भी वह भारीपन साफ़ महसूस हो रहा था। धीरे-धीरे तीन दिन बीत गए और मैंने अपने कुमाऊँ को बहुत करीब से जाना और महसूस किया। अब समय था वापिस वही भाग-दौड़ वाली जिंदगी में लौटकर, दौड़ में भागने का।
गाँव की छोड़ना जितना मुश्किल मेरे लिए था उससे कई ज्यादा मुश्किल पापा के लिए था। अपना पूरा बचपन उन्होंने यहाँ गुजारा हो और अब उसी मिट्टी को छोड़ना इतना आसान कैसे होता। हमें विदा करने मानों पूरा गांव ही आया हो ,कोई गहद की दाल, कोई बाल मिठाई, कोई मंडवे का आटा, तो कोई अपने खेत के पिनआलू लेकर अपने प्रेम की निशानी हमारे हवाले कर रहे थे। हम इन सब चीजों के रूप में मानो पहाड़ अपने साथ लेकर जा रहे हों।
इस सफर मे मुझे समझ आया – पहाड़ सिर्फ वह जगह नहीं जहाँ मैं पैदा हुई, बल्कि वह पुकार है जो कभी खत्म नहीं होती। रास्ते भर एक ही सवाल था कि क्यों न पहाड़ लौट जाएँ। पलायन की वजह से एक अलग किस्म का सूनापन था हर मोड़ मानों कह रहा हो कि लौट आओ अपने घर जहाँ –“जहाँ गंगा की कल-कल कान में मिश्री सदा घोले यहीं केदार का ले रूप बसते हैं स्वयं भोले, कि हिम शिखरों की तन- हठियों की चादर है वोबोग्यालों की,
सुनहरें देश हैं जैसे कोई दुनियाँ खयालों की”।
भाभर की ओर आकर भी मन पहाड़ों में ही था और स्वयं से यही सवाल बार बार पूछ रही थी कि क्यों न लौट चलें सब चिंताएँ छोड़कर, दौड़ भाग से दूर अपने उत्तराखंड। पहाड़ की तरफ मैंने फिर से पीछे मुड़कर देखा – पहाड़ अब भी वही कह रहे थे
“वो भट्ट की चुटकानी, वो झंगोरे की खीर,
वो हरज्यू का थान, वो चार धाम का सम्मान बुला रहा है,
वो बड़ी-बड़ी ‘बाखली’ का प्यार, वो हरेले का त्योहार बुला रहा है,
तो मैं यह हाथ बड़ा रही हूँ, आप भी हाथ बड़ाएँ
क्यों न फिर से पहाड़ लौट जाएँ ।….”
हर्षिता नियोलिया
(युवा लेखिका हर्षिता नियोलिया पहाड़ी जीवन और संस्कृति की अध्येता हैं)
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