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Inn Galiyon Mein: अच्छी फिल्मों को देखने का अनुभव बुरा क्यों होता है?

‘इन गलियों में’ इस 4 अप्रैल से एक बार फिर कई शहरों के सिनेमाघरों में दस्तक दे चुकी है। फिल्म को देखने के बाद बतौर दर्शक एक अनुभव

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-दामिनी यादव
जो हम कह रहे हूं, ऐसा नहीं है कि ये पहली बार है, लेकिन हर बार इसका दोहराव सोचने पर ज़रूर मजबूर कर देता है कि क्या हमें वाक़ई अच्छी चीज़ों की ज़रूरत है भी! अगर नहीं तो फिर हम सभी हर वक़्त का ये रोना क्यों लगाए रहते हैं कि रचनात्मकता के नाम पर फूहड़ता का चलन बढ़ गया है। ये बात लागू तो बहुत सी चीज़ों पर होती है, लेकिन यहां इसका मक़सद हालिया रिलीज़ फिल्म ‘इन गलियों में’ के बारे में बात करना है। पत्रकारिता से फिल्मी दुनिया में आए अविनाश दास की ये एक ऐसी बेहतरीन फिल्म है, जो इस वक़्त की एक बड़ी ज़रूरत तो है, लेकिन इस बेहद ज़रूरी चीज़ पर काम करना भी उनके लिए कैसा अनुभव रहा होगा, इस पर एक अलग से एक लंबी-चौड़ी बात की जा सकती है।
फिल्म की टीम में विनोद यादव, संजीव गोस्वामी, आदर्श सक्सेना और जांनिसार हुसैन के साथ-साथ फिल्म के प्रॉड्यूसर के तौर पर करण जौहर का नाम भी जुड़ा होना सुखद लगता है। जो लोग करण जौहर को विशुद्ध फिल्मी मसालों का छौंक लगाने वाला फिल्मकार मानते हैं, उनके प्रॉडक्शन में बन रही इस तरह की फिल्मों के बाद भी अगर दर्शक सिनेमाघर तक, टिकट ख़रीदकर न जाएं तो फिर उन्हें कठघरे में रखने वाले लोग ख़ुद उस कठघरे में खड़े नज़र आएंगे, क्योंकि उन्हीं की कमी से बहुत सारी अच्छी और ज़रूरी फिल्में या तो थियेटर तक पहुंच ही नहीं पातीं या फिर टिक नहीं पातीं। ले-देकर उन्हें सहारा मिलता है, फिल्म फेस्टिवल्स से।
हालांकि ये बात कहने की ज़रूरत नहीं है, हम फिर भी कह रहे हैं, क्योंकि ये फिल्म हमने थियेटर में बाकायदा अपने पैसे ख़र्च करके देखी है। ज़ाहिर है, तब राय भी सिर्फ़ वही होगी, जो हमारी कमाई की तरह खरी हो। हम सोशल मीडिया पर शोर मचाएं, न मचाएं, लेकिन सही के साथ कब, कैसे खड़ा होना है, ये हमारे ज़मीर का याद है।
अविनाश दास द्वारा निर्देशित और पुनर्वसु द्वारा लिखी गई ये फिल्म ‘इन गलियों में’ सिर्फ़ ज़रूरी बात करती है और अपने पूरे बजट में भी सिर्फ़ ज़रूरी चीज़ों को ही रखती है, यानी कम बजट में, संवेदनशील-समर्थ कलाकारों की टीम के साथ एक मजबूत कहानी। यहां तक कि इसमें कहानी की ही बात को आगे बढ़ाने के लिए भी उन ग़ैर ज़रूरी दृश्यों के फिल्मांकन तक से परहेज़ किया गया है, जिन्हें आज ओटीटी के ज़माने में बेड़ा पार लगाने के लिए ज़रूरी मसाला माना जाता है। इन बातों को कहने का शऊर दर्शकों की समझ पर छोड़ दिया गया है, इस भरोसे के साथ कि फिल्म बनाने वाला अकेला ही समझदार नहीं होता, जो देख रहे हैं, थोड़ी अक़्ल वे भी रखते हैं। इसी के चलते छत्त पर आई प्रेमिका, रात में दोबारा अपनी याद आने पर प्रेमी के हाथों में अपना दुपट्टा सौंप जाती है आंसू पोंछने के लिए और यक़ीन कीजिए, इतना ही काफ़ी लगता है। हर मुहब्बत का इज़हार सिर्फ़ होंठों पर होंठ चिपका कर नहीं होता। कुछ गहराइयां, कुछ न कहने में ही होती हैं। एक और दृश्य, जहां मिर्ज़ा, जिनका होना बहुत ज़रूरी है, नहीं रहते। कुछ लोग अपने किए की कालिख छिपाने के लिए मुंह ढक कर आते हैं और मिर्ज़ा की आंखें और चेहरा ही दर्शकों को ये बता देता है कि अब क्या होने वाला है और दर्शक समझ जाता है। दरवाजे के नीचे से आती खून की धार का असर दर्शकों की आंखों की नमी में साफ़ महसूस किया जा सकता है।
छोटी सी लोकेशन, थोड़े से कलाकार (जावेद जाफ़री, सुशांत सिंह, विवान शाह, अवंतिका दासानी, इश्तियाक़ ख़ान और वीनाय भास्कर) और भारत के जाने कितने ही गली-मोहल्लों की कहानी दिख जाती है, ‘इन गलियों में’। वक़्त के साथ ये गलियां खो सी गई हैं, जिन्हें ढ़ूढ़ंने किसी ‘पगला’ को ‘भारत एक खोज है’ के साथ निकलना पड़ता है। उस तलाश में कहीं न कहीं हम सभी शामिल हैं अपने-अपने तौर पर, लेकिन असल में अब हर गुज़रते दिन के साथ ये तलाश और लंबी लगने लगती है। फिल्म में ‘मिर्ज़ा’ से मुहब्बत होनी तो स्वाभाविक है, लेकिन बतौर दर्शक हमें तो ‘पगला’ भी भा गया। अजय तिवारी इस वक़्त के सबसे बड़े डर में से एक हैं।
अब आते हैं हम इस बेहद अच्छी और ज़रूरी फिल्म से जुड़ी उस बात पर, जहां से बात की शुरुआत हुई थी कि अच्छी फिल्मों को देखने का अनुभव बुरा क्यों होता है। दरअसल, 14 मार्च को रिलीज़ हुई ये फिल्म कब आई, कब चली गई, ठीक से कुछ पता ही नहीं चल पाया, क्योंकि अपनी ताज़ा रिलीज़ के वक़्त भी इसे गिनती के सिनेमाघर ही मिल पाए थे। सेंसर से इसे पास करवाना कितनी बड़ी कवायद थी, इसकी दास्तान पर तो फिल्म के निर्माता-निर्देशक एक पूरी फिल्म ही बना सकते हैं। सो जब कुछेक शहरों में ये 4 अप्रैल को एक बार फिर से दिखाई गई तो मौका चूकने से बचते हुए हम भी अपने एक नज़दीकी मल्टीप्लेक्स में जा पहुंचे। फिल्म को देखने आए दर्शकों की संख्या अफ़सोस की पहली वजह बन रही थी, क्योंकि इतने लोगों को तो अविनाश दास अपने घर के ड्राइंग रूम में ही फिल्म दिखा सकते थे, लेकिन उन्होंने ये सोचकर तो फिल्म नहीं बनाई होगी कि ख़ुद बनाएं और ख़ुद देखें। शायद वे भी सोशल मीडिया की उस भीड़ से प्रभावित हो गए थे, जो हर जरूरी बात पर इन प्लेटफॉर्म पर तो ज़ोर-शोर से हो-हल्ला करती है, लेकिन जब बात घर से निकलकर साथ खड़े होने की होती है तो बात कहने वाला ख़ुद को अकेला महसूस करने लगता है और सोशल मीडिया पर ‘सही-सही’ का शोर मचाती पोस्ट लिखने वाले घरों में बैठकर अपनी उंगलियां सहला रहे होते हैं।
कमर्शियल तरीके से बनी और कमर्शियल तरीके से दिखाई जा रही ये फिल्म कमर्शियल सक्सेस की भी हकदार है, ये बात अलग से कहने-सुनने की ज़रूरत नहीं होनी चाहिए, पर है। उस सिनेमा हॉल में फिल्म देखने आये दर्शक ही उंगलियों पर गिनने लायक नहीं थे, बल्कि उससे भी बड़ी उपेक्षा मल्टीप्लेक्स के मैनेजमेंट की तरफ से देखने को मिली, जब ‘इन गलियों में’ की बजाय दक्षिण भारतीय सुपर स्टार मोहनलाल की हालिया रिलीज फिल्म दिखाई जाने लगी, जिसके तुरंत बाद ही सारे दर्शक बाहर निकल गये और एक स्टाफ से बात करके दोबारा वो फिल्म चलवाई गई, जिसके टिकेट्स लेकर वे फिल्म देखने आये थे। मज़े की बात तो ये कि जिस स्टाफ की ज़िम्मेदारी थियेटर में फिल्म प्ले करना था, उसे इस फिल्म के दोबारा रिलीज़ होने के बारे में कोई जानकारी ही नहीं थी, जबकि उससे पिछले दिन भी ये फिल्म दिखाई जा चुकी थी। बहरहाल, उस स्टाफ ने माफ़ी मांगते हुए सही फिल्म को शुरू से शुरू करवाया।
फिल्म असरदार है तो असर छोड़ेगी ही, लेकिन फिल्म की बॉक्स ऑफिस कलेक्शन पर सवाल उठाना इसलिए ज़रूरी है कि क्या हम बतौर दर्शक, इस फिल्म या इस तरह की फिल्मों के निर्माता-निर्देशक में ये हौसला भी छोड़ते हैं कि वे दोबारा इस तरह की फिल्म बना सकें? अगर ईमानदारी से बात करें तो वहां आये लोगों को देखकर कई बार ये सवाल मन में उठा कि क्या ये फिल्म अपनी लागत भी निकाल पाई होगी।
अच्छा काम करने वालों की कमी नहीं है, लेकिन इस वक़्त में सिर्फ़ अच्छा काम करना ही कितना मुश्किल काम है, ये हममें से कौन नहीं जानता। कितने लोग हैं, जो ख़तरे उठाकर वो काम कर रहे हैं, जो इस समय की चुनौती है, वर्ना ज़्यादातर लोग तो काम सिर्फ़ इसलिए कर रहे हैं कि वे मार्केट में बने रहें और उनके घर का चूल्हा भी जलता रहे। इसके लिए वे जो कर रहे हैं, वो सही है या ग़लत, इस पर शायद उन्होंने सोचना भी बंद कर दिया है। अब ये चाहे मजबूरी में हो या हर बात में ‘मुझे क्या’ वाले रवैय्ये के चलते।
इस फिल्म की कहानी हमें जितनी ज़रूरी लगी, उतनी ही प्यारी भी। पुनर्वसु के लिखे गीत तो कानों का शहद हैं, जिन्हें अमाल मलिक और सौरभ कलसी के संगीत ने और सुरीला बना दिया है। बार-बार सुनने को जी चाहेगा। हां, कुछ जगहों पर, कुछ तकनीकी बातों की कमी खलती ज़रूर है, लेकिन वो इस ज़रूरी फिल्म बनाने के मकसद और जज़्बे की ईमानदारी को कम नहीं करती। अगर हम मसाला फिल्मों में दसवीं मंज़िल से कूदे हीरो को, बीस गुंडों को मारने के बाद, हीरोइन के साथ पेड़ के पीछे गाना गाते देखकर भी यक़ीन कर सकते हैं, ताली मार सकते हैं, सीटी बजा सकते हैं और इस सब के लिए पांच-सात सौ की टिकेट ख़रीद सकते हैं तो इस फिल्म की कुछेक तकनीकी कमियां क़ाबिले-माफ़ी हैं। कहानी पर ज़्यादा बात हम इसलिए नहीं कर रहे हैं कि अभी भी कुछेक शहरों में ये फिल्म थियेटर्स पर दिखाई जा रही है। सभी लोग तो सही की लड़ाई के झंडाबरदार नहीं हो सकते, अपनी-अपनी मजबूरियों के चलते, लेकिन जो लोग हर तरह का जोखिम उठाकर ऐसा कर रहे हैं, अगर उनकी मेहनत कमर्शियल तरीके से भी सफल रहे तो इस तरीके से भी ये कहा जा सकता है कि हम सही के साथ हैं।
हमने कई लोगों को सही वक़्त पर, सही कहने-करने का जज़्बा लिए जूझते देखा है, लेकिन फाइनेंशियल क्राइसेस के हल कितने मुश्किल होते हैं कि कइयों का सफ़र बीच राह में ही रह जाता है। ये फिल्म ऐसे वक़्त में भी थियेटर तक पहुंच पाई, ये कम मुश्किल नहीं रहा होगा। हम सभी शायद उस वक़्त में इस टीम या ऐसे लोगों के साथ नहीं थे, लेकिन अब जब ये थियेटर में है तो आप भी वहीं पहुंच जाइए। ज़रूरी वक़्त में भी चुप रह जाने के पाप से थोड़ा छुटकारा तो हमारी आत्मा भी महसूस कर ही लेगी, क्योंकि गंगा मैया तो सारे पाप धो ही देती हैं, लेकिन कुछ पाप इन जैसी गलियों में भी धुल जाते हैं, इंसानियत को ज़िंदा रखकर। अंत में, वालैकुम प्रणाम…
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