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इमरोज़ को सिर्फ़ ख़्वाब होना चाहिए, हक़ीक़त नहीं- दामिनी यादव
‘तू मेरा समाज, मैं तेरा समाज, बाक़ी समाज भीड़।’- इमरोज़

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खिड़कियां खोलो तो हवा के झोंकों के साथ कुछ धूल-मिट्टी, कुछ कीट-पतंगे भी आ ही जाते हैं और अगर ऐसा किसी अंधड़ या तूफ़ान के वक़्त के कर लिया जाए तो घर गंदा होना तय है, लेकिन घर तो वे भी गंदे होते ही हैं, जो अपनी खिड़कियां अक़्सर खोलते ही नहीं। लिहाज़ा, हवाओं की ताज़गी की इतनी क़ीमत तो चुकाई ही जा सकती है। कल एक बेहद क़ाबिल, मगर गुमनाम से पेंटर इमरोज़ का देहांत हो गया। वही इमरोज़, जिनकी पहचान दुनिया में ज़्यादातर लोगों के लिए सिर्फ़ मशहूर लेखिका अमृता प्रीतम जी के जीवनसाथी के रूप में ही रही, मानो उनका अपना अलहदा वजूद तो कुछ था ही नहीं। ये पहचान बनती भी तो कैसे, क्योंकि ख़ुद इमरोज़ साहब ने ही कभी ऐसा चाहा तक नहीं था, कोशिश तो दूर की बात है। बेहतरीन पेंटर होने के बावजूद उन्होंने कभी अपनी पेंटिंग एग्ज़िविशन वग़ैरह शायद ही लगाई हो, कम से कम मेरी जानकारी में तो ये बात नहीं है। हां, दिल्ली के ऐसे कई पब्लिशर हैं, जो अक़्सर उनसे अपनी किताबों के कवर डिज़ाइन करवाते रहते थे। कई लेखक ऐसे हैं, जिनकी किताबों के भीतर इमरोज़ साहब के बनाए स्कैचेस मिल जाए। उन ख़ुशनसीबों में मेरी अपनी किताब ‘ताल ठोक के’ भी शामिल है।
मुझे आज भी याद है, जब इस किताब के लिए मैंने उनके स्कैचेस लिये थे तो उन्होंने मुझसे उन कविताओं के बारे में पूछा था, जिनके साथ मैं ये स्कैचेस लगाना चाहती थी और ऐसा उन्होंने इसलिए किया था, क्योंकि ये मेरी किताब थी और इमरोज़ साहब ने मुझे बहुत-बहुत प्यार और दुआओं से नवाज़ा है। उनका हाथ बहुत मौक़ों पर मेरे सर पर रहा है। उनकी गोद मैंने कई बार आंसुओं से गीली की है। उनकी सरपरस्ती ने मुझे बहुत बार राह दिखाई है।
इमरोज़ साहब ने इस किताब के टाइटल पर मुस्कुराते हुए, ये कहते हुए वजह भी पूछी थी कि किताब के अंदर तो ज्वालामुखी ही होगा, ये तो मुझे पता है, लेकिन किताब का यही टाइटल क्यों? तब मैंने कहा था कि ‘ताल ठोक के’ अखाड़ों में उतरा जाता है। जो लोग पहलवानी के क़ायदे जानते हैं, उन्हें पता है कि अगर एक बार ताल ठोक के अखाड़े में उतर ही गए तो फिर हिस्से में चाहे जीत आए या हार, बीच में से हार मान कर मैदान नहीं छोड़ेंगे। मैं अपनी ज़िंदगी के अखाड़े में बिना अपनी मर्ज़ी और तैयारी के उतार दी गई थी। मेरा पैदा होना मेरी मर्ज़ी नहीं थी। मेरे हालात मेरी मर्ज़ी नहीं थे। मेरे तौर-तरीके मेरी मर्ज़ी नहीं थे। मेरी ग़लतियां ही नहीं, मेरी कुछ गिनी-चुनी कामयाबियां भी मेरी मर्ज़ी नहीं थीं। और सिर्फ़ मेरे साथ ही नहीं, बल्कि क्या हम सभी के साथ अक़्सर यही नहीं होता है कि हमारी कोई भी प्लानिंग महज़ एक छलावे के और कुछ नहीं होती, जो कुछ हमारे साथ होता है, उसमें हमारी मर्ज़ी का परसेंटेज़ कितना होता है! मर्ज़ी हो या न हो, अब अगर एक बार ज़िंदगी के इस अखाड़े में उतर ही गई हूं तो ताल भी ठोक ही दी है और कोशिश करने से हार भी अपनी आख़िरी सांस तक नहीं मानूंगी। न तो पीठ दिखाऊंगी, न अखाड़ा छोड़कर भागूंगी। इस बात पर इमरोज़ साहब बहुत देर तक हंसे थे और बहुत-बहुत हंसे थे। उन्हें हंसता देखकर ही मुझे लगा था अपनी किताब का ये टाइटल रखकर मुझे चाहे और कुछ हासिल हो या न हो, उनकी ये हंसी किसी ख़ज़ाने से कम नहीं।
उन्होंने ये भी पूछा था कि तू अपने लफ़्ज़ों की आग के साथ मेरे स्कैचेस का तालमेल कैसे बिठाएगी और मेरा जवाब था, अपनी ज़िंदगी की तरह। यही सच भी है, मैंने हमेशा सबसे कड़वे हालात में भी थोड़ी-सी मिठास बचाए रखी है। जिन लम्हों में मुझे ख़ुद अपनी ज़िंदगी बास देती लगती है, मैंने तब भी अपने आस-पास ख़ुशबुओं से महकते ताज़े फूल सहेजे रखे हैं। मेरी किताब में, मेरी कविताओं के साथ इमरोज़ साहब के ये स्कैचेस उसी तरह महकते हैं, जैसे किताबों में रखे, पुराने पड़ चुकने के बावजूद फूलों की ख़ुशबू। कई और भी लेखक हैं, जिनकी किताबों में इमरोज़ साहब के बनाए स्कैचेस मिल जाएंगे।
इसके अलावा जिन लोगों ने भी इमरोज़ साहब के बनाए बुक-कवर देखे हैं, वे जानते हैं कि उनकी अपनी एक अलग ही शैली थी। कई बार तो किताबों के कवर को देखकर, बिना भीतर नाम पढ़े ही पता चल जाता था कि ये कवर तो इमरोज़ साहब का बनाया हुआ है। उनकी वही जानी-पहचानी शैली, जो उनकी पेंटिंग्स की भी ख़ासियत रही है। इमरोज़ साहब ने आर्ट जी भी थी और आर्ट कॉलेज से सीखी भी थी। वे फ़ितरत से कलाकार और काम से प्रोफेशनल थे। जी हां, इमरोज़ साहब के स्कैचेस की क़ीमत तो क्या ही हो सकती थी, लेकिन कुछ न कुछ तो अदा करना ही था। उनकी भलमनसाहत का फ़ायदा उठाने वाले भी कम नहीं थे, लेकिन कम ही लोगों को ये बात पता थी कि इमरोज़ साहब अपने ज़्यादातर ख़र्च इनके ज़रिये ही पूरा करते थे।
थोड़ा सा और गहराई में जाएंगे तो इस फ़र्क को भी समझ सकेंगे कि अमृता प्रीतम जी ने इमरोज़ साहब को साथ रखा था, लेकिन ‘पालतू’ नहीं बनाया था। इतना सख़्त लफ़्ज़ मैं इसलिए इस्तेमाल कर रही हूं, क्योंकि मुझे आज भी याद है कि जब एक बार इमरोज़ साहब से मिलकर आने के बाद मैंने उस दिन की मुलाक़ात की ख़ास बातों के बारे में अपने एक काफ़ी सीनियर जर्नलिस्ट दोस्त को बताया था तो उन्होंने कितनी उपेक्षा से कहा था, ‘हां, मैं भी मिला हूं एक-आध बार उनसे अमृता जी के ही घर पर इंटरव्यू करने के दौरान। हमारी चाय वही लेकर आए थे। मैं तो समझा था कि शायद वे घर के नौकर हैं, क्योंकि चाय की ट्रे रखने के बाद भी वे घर का कुछ सामान लाने चले गए थे। यार, मर्द चाहे दोस्त या प्रेमी ही क्यों न हो, मर्द तो लगना चाहिए न। ये क्या कि किसी भी रिश्ते के लिए अपने-आप को इतना मिटा कर रख दो।’
इतना कहने के बाद मेरे वे दोस्त हंस पड़े थे। उनकी वह हंसी मैं कभी भूल नहीं सकती, क्योंकि इस हंसी से तो दुनिया की तमाम औरतें परिचित हैं। यही हंसी तो है, जो ‘इमरोज़’ को एक ख़्वाहिश बना देती है, हक़ीक़त नहीं। ये दुनिया, पहली बात तो इमरोज़ पैदा ही नहीं करती और ग़लती से मुहब्बत के बाग़ का कोई माली किसी श्राप को झेलने के लिए इसी दुनिया में इमरोज़ बनकर पैदा हो भी जाए तो फिर श्राप तो श्राप ही होता है न! जब मैंने ये बात सुनी थी, वह भी एक पढ़े-लिखे, समझदार, जर्नलिस्ट दोस्त के मुंह से तो पहली चीज़ मेरे ज़ेहन में यही आई थी कि इतनी सारी सलाहियतें मिलकर भी उसे एक मुहब्बत समझने वाला इंसान नहीं बना सकीं। फिर इमरोज़ साहब ने तो न जाने कितनी बार, कितने मौक़ों पर, क्या-क्या नहीं सुना या सहा होगा।
वे अमृता प्रीतम जी के साथ रहे थे, मगर उन दोनों ने दुनियावी रस्मोरिवाज के मुताबिक शादी और किसी सामाजिक सर्टिफिकेट की ज़रूरत नहीं महसूस की थी।
वे दोनों कहते भी तो थे, ‘तू मेरा समाज, मैं तेरा समाज, बाक़ी समाज भीड़।’ भीड़ का तो काम ही तमाशा देखना है। ये भीड़ क़त्ल को भी तमाशे की तरह देखती है और मुहब्बत को भी तमाशा ही समझती है। सो जब-जब इस भीड़ ने इन दोनों मुहब्बत करने वालों की तरफ़ पत्थर फेंके होंगे, उनमें से हर पत्थर का निशाना सिर्फ़ अमृता ही तो नहीं रही होंगी। बहुत से पत्थर इमरोज़ के माथे का ज़ख़्म भी तो बने होंगे।
वे दोनों कहते भी तो थे, ‘तू मेरा समाज, मैं तेरा समाज, बाक़ी समाज भीड़।’ भीड़ का तो काम ही तमाशा देखना है। ये भीड़ क़त्ल को भी तमाशे की तरह देखती है और मुहब्बत को भी तमाशा ही समझती है। सो जब-जब इस भीड़ ने इन दोनों मुहब्बत करने वालों की तरफ़ पत्थर फेंके होंगे, उनमें से हर पत्थर का निशाना सिर्फ़ अमृता ही तो नहीं रही होंगी। बहुत से पत्थर इमरोज़ के माथे का ज़ख़्म भी तो बने होंगे। बेशक, अमृता प्रीतम जी उस दुनिया को इस दुनिया में मिला देती थीं अपने शब्दों और एहसासात से कि जो लोग इस दुनिया को मुहब्बत की नज़र से देखना चाहते हैं, उनके लिए ये थोड़ी जीने लायक हो जाती थी। वे एक बहुत क़ाबिल, निडर और साहसी महिला थीं, जो अपने फ़ैसले ख़ुद लेती थीं और उन फ़ैसलों की ज़िम्मेदारी भी। उन्होंने अपने किसी भी फ़ैसले के लिए कभी हालात या लोगों को ज़िम्मेदार नहीं ठहराया और ये सचमुच बहुत बड़ी बात है। हम सभी अपने सही फ़ैसलों के लिए तो अपनी पीठ थपथपाने से पीछे नहीं हटते, लेकिन ग़लत फ़ैसलों का इल्ज़ाम कभी हालात के सर थोपते हैं तो कभी लोगों के। अमृता सचमुच इस मामले में बहुत दिलेर थीं।
मेरे एक और पत्रकार दोस्त हैं, संजय स्वतंत्र, वे ख़ुद भी बहुत अच्छा लिखते हैं। जो लोग इस बारीक़ फ़र्क को समझते हैं, वे जानते हैं कि लेखन और पत्रकारिता में फ़र्क़ होता है और संजय स्वतंत्र अच्छे पत्रकार होने के साथ-साथ बेहद संवेदनशील लेखक भी हैं। उनके कुछ शब्द कल ही मेरी नज़र से गुज़रे, जो मैं ज्यों का त्यों यहां साझा कर रही हूं, ‘मुश्किल है किसी पुरुष के लिए इमरोज़ बनना। इतना टूट कर कोई ऐसी स्त्री से प्यार करता है क्या, जो किसी और से मोहब्बत में डूबी हो! इमरोज़ ने न केवल एक अनाम रिश्ते को निभाया, बल्कि जिया भी। मेरा मानना है कि अमृता ने इमरोज़ के साथ ताउम्र इंसाफ़ नहीं किया। इमरोज़ चले तो गये, मगर मुझे नहीं लगता कि अमृता किसी दूसरी क़ायनात में उनसे मिलेंगी। ‘मैं तैनु फिर मिलांगी’ उनके लिए नहीं, यह साहिर के लिए लिखा था उन्होंने। वे इमरोज़ के एकनिष्ठ प्रेम की कोई कहानी साहिर की पीठ पर नहीं लिखेंगी। बावजूद इसके इमरोज़ प्रेम के देवता हैं। एक ऐसा पुरुष जो अपनी प्रिया के पीछे आजीवन खड़ा रहा। अपना पूरा जीवन होम करता रहा। उनके प्रेम का दीप सदियों जलता रहेगा।’
सचमुच, कितने ऐसे ‘मर्द’ इमरोज़ सरीखे होंगे, जो किसी साहिर की कहानी अपनी पीठ पर लिखने देंगे और उस स्कूटर का कोई एक्सीडेंट भी नहीं होगा, जिसे उस वक़्त वे चला रहे होंगे। इमरोज़ की पीठ पर अपनी उंगलियों से साहिर का नाम अमृता प्रीतम उसी वक़्त लिखा करती थीं, जब स्कूटर पर आते-जाते वक़्त वे इमरोज़ के पीछे बैठी होती थीं और इमरोज़ ये बात बख़ूबी जानते थे। इतनी बेगरज़, शफ़्फ़ाक़ मुहब्बत! उफ़! इमरोज़, आप सिर्फ़ ख़्वाब होने के काबिल हैं, हक़ीक़त नहीं, इसीलिए तो जब ये ख़्वाब इस हक़ीक़त-पसंद ‘प्रेक्टिकल’ दुनिया में उतर आया तो उसे तोड़ने की कोशिशों में कभी, किसी ने, कोई कमी नहीं रखी होगी। इमरोज़ साहब की मुस्कुराहट, जिसकी मैं कायल थी, ऐसे ही थोड़ी न इतनी गहरी हो गई होगी।
मैं अगर एक औरत होने के नाते इमरोज़ साहब के बारे में सोचूं तो मुहब्बत-पसंद ऐसी कौन सी औरत होगी, जो अपनी ज़िंदगी में किसी इमरोज़ जैसे इंसान की मौजूदगी न चाहती होगी कि कोई उसे दुनिया-ज़माने की परवाह किए बिना इतना टूटकर चाहे। उसका वजूद मिटाए बिना उसके साथ खड़ा रहे। उसके क़द की ऊंचाई से डरे बिना उसके थके तन-मन-ज़ेहन के लिए अपनी बांहों में सुक़ून का आसमां बना दे, पर ऐसा होता तो नहीं है न! ‘मर्द’ होने की पहली शर्त ही है औरत से आगे होना, औरत से मज़बूत दिखना। मैं ख़ुद व्यक्तिगत रूप से ऐसी कई कामयाब औरतों को जानती हूं, जिनके पति अक़्सर उनके साथ सोशल इवेंट्स में जाने से सिर्फ़ इसलिए बचते हैं, क्योंकि उनकी पत्नी की सामाजिक पहचान उनसे ज़्यादा होने के चलते, वहां उनका परिचय उस फ़लां महिला के पति के रूप में ही दिया जाएगा और ज़ाहिर है, एक मर्द की पहचान एक औरत के दम पर कैसे हो सकती है! इसी सोच ने इस दुनिया में मर्दों को कभी इमरोज़ होने ही नहीं दिया और जो हुआ, उसने बहुत सहा।
मैं सोचती हूं तो लगता है कि कुछ चीज़ें ऐसी थीं, जो अमृता प्रीतम जी चाहतीं तो इमरोज़ साहब के लिए कर सकती थीं। अगर अमृता जी के लिखने-पढ़ने के वक़्त उनकी चाय की तलब को समझकर इमरोज़ साहब चाय बना भी लाते, बिना आवाज़ किए उनकी टेबल पर रख भी देते और ख़ामोशी से दबे कदमों कमरे से बाहर भी चले जाते तो अमृता जी ने भी क्यों नहीं इमरोज़ साहब के पेंटिंग के हुनर को इसी तरह ख़ामोशी से दुनिया के सामने रखकर, उनकी अलहदा पहचान को बचाए रखने की कोशिश की। ख़ास तौर पर उस वक़्त, जब इमरोज़ ने ख़ुद अपनी अलहदा पहचान बनाने की कोशिश कभी नहीं की, लेकिन ज़माने ने उनकी कोई पहचान समझना ज़रूरी नहीं समझा। यहां तक कि अगर समझा भी तो बहुत ग़लत रूपों में। तब अमृता जी को भी कोशिश करनी चाहिए थी कि जिस इंसान ने उनके वजूद के लिए अपने-आप को मिटा दिया, वे उसका वजूद न मिटने दें। भागीरथी और अलकनंदा साथ-साथ बहकर भी अपना-अपना रंग बचाए रखती हैं, उन्हें सिर्फ़ संगम एक रंग देता है, पर उस निजी संगम से पहले तो उनके अलहदा रंग दुनिया को दिखते हैं। अमृता को भी इमरोज़ के रंगों को बचाने के लिए वैसे ही ख़ामोशी, मगर मज़बूती से आगे आना चाहिए था।
अमृता प्रीतम की सोच ज़माने से बहुत आगे थी। वे आज में कल देख सकती थीं। इसी दुनिया में अपने रहने के लिए अलग दुनिया तामीर कर सकती थीं। फिर वे क्यों नहीं देख पाईं कि उम्र में उनसे बहुत छोटे इमरोज़, अगर कहीं इस मुहब्बत के सफ़र में उनके बाद अकेले पड़ गए तो वे इस मेले में खोए बच्चे से नहीं हो जाएंगे! उन्होंने क्यों यहीं, इसी दुनिया में, इसी के तौर-तरीकों से वे इंतज़ाम भी नहीं कर दिए कि अगर वे न रहें तो उनके बाद अकेले पड़ चुके इमरोज़ को ‘आदम’ की तरह मुहब्बत के उस बाग़ से न निकलना पड़े, जिसमें रहने की आदत उन्होंने ही साथ देकर डाली थी। जो दुनिया जीते-जी उन्हें नहीं समझ पाई, क्या वह दुनिया उनके बाद इमरोज़ को समझ पाएगी! और इमरोज़, उन्हें तो आदत ही नहीं है अपने होने का एहसास दिलाने की तो क्या दुनिया उनके रहते ही उन्हें नहीं मिटा देगी!
अगर मेरा सवाल ग़लत है तो फिर क्यों इमरोज़ साहब अमृता जी के चले जाने के बाद धीरे-धीरे दुनिया-जहान से कटते चले गए? क्यों बार-बार यहां-वहां से ये अफ़वाह उड़ती सुनाई पड़ती कि इमरोज़ गुज़र चुके हैं और इमरोज़ जब सचमुच गुज़रे तो कितने लोग थे, जो उनके अंतिम दर्शन कर पाए, उनके आख़िरी सफ़र में कांधा दे पाए, उन्हें आख़िरी सलाम कर पाए? नफ़रतों की आंच से लिपटी इस दुनिया में अभी भी कई लोग बाक़ी हैं, जो मुहब्बत के आख़िरी सफ़र तक में उसके साथ होना चाहते हैं और इमरोज़ उस मुहब्बत के फ़रिश्ता-सरीख़े नुमाइंदे थे। अगर अमृता प्रीतम का आख़िरी सफ़र सिर्फ एक ख़बर नहीं था, उस वक़्त वहां हर तबके के सिलेब्रिटी मौजूद थे तो उसी सफ़र के हमराही इमरोज़ अपने आख़िरी सफ़र पर इस तरह तन्हां क्यों चले गये कि उन्हें एक आख़िरी बार देख लेने की ख़्वाहिश रखने वाले तक तरस-तरस कर रह गए। मुहब्बत करने की सज़ा इतनी नफ़रत!
अगर यही सच है तो एक औरत होने के नाते मैं अपनी ज़िंदगी में इमरोज़ का ख़्वाब तो ‘पालूंगी’, लेकिन किसी जीते-जागते इमरोज़ को नहीं। इमरोज़ को सिर्फ़ ख़्वाब होना चाहिए, हक़ीक़त नहीं…
(इस लेख में व्यक्त किए गए विचार लेखिका के अपने हैं। संपादक, संस्था अथवा वेबसाइट का इन विचारों से समर्थन आवश्यक नहीं है और न ही इसके प्रति उनका कोई दायित्व बनता है।)





