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मातृ दिवस पर पुण्य स्मृति…

यह सच है कि मां एक अनुभूति है जो जीवन में सदैव व्यक्ति के अस्तित्व की प्रतीक है, परिचायक है।  

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मां शब्द की व्याख्या नहीं की जा सकती। वह स्वयं में समूची दुनिया है। प्रेम, स्नेह और ममत्व का अथाह सागर है वह। उसका आंचल उस छायादार वृक्ष (shade tree)से भी अधिक विशाल है जिसके नीचे जो शांति मिलती है, उसकी अन्यत्र कहीं भी कल्पना तक नहीं की जा सकती। मां पूजनीय है, वंदनीय है, मननीय है, आदरणीय है और सदैव स्मरणीय भी। यह सच है कि मां एक अनुभूति है जो जीवन में सदैव व्यक्ति के अस्तित्व की प्रतीक है, परिचायक है। इसलिए मातृ दिवस को किसी दिवस विशेष में सीमित कर देना मां के उस असीम स्नेह, ममत्व, प्रेम और उस आशीष का अपमान है जो प्राणी मात्र के जीवन के अंतिम क्षण तक न केवल बना रहता है, प्रतिपल उसे दैवीय ऊर्जा से संपृक्त करता है और जीवन में आगे बढ़ने का मार्ग प्रशस्त करता है। मां के बिना हमारा जीवन अधूरा है, ऐसा मेरा मानना है। असलियत में मां का महत्व वह बच्चे अच्छी तरह जानते-समझते हैं जिनकी मां बचपन में ही उन्हें रोता-बिलखता छोड़ सदैव-सदैव के लिए दूसरी दुनिया में चली जाती हैं। सच्चाई यह भी है कि मनुष्य ही नहीं, पशु-पक्षी, पेड़-पौधे सभी को मां चाहिए। तात्पर्य यह कि जीवन देने वाली शक्ति, जीवन दायिनी मां। इसमें भी दो राय नहीं कि हमारे समूचे ग्रंथ मां की महत्ता से भरे पडे़ हैं। मां की महत्ता का विषद वर्णन जितना हमारे ग्रंथों में मिलता है, उतना दुनिया के किसी भी ग्रंथ में नहीं मिलता। यही नहीं हमारे जीवन से जुड़ी जो भी वस्तुएं हैं, वह चाहे धरती हो, नदी हो, प्रकृति हो या फिर गाय आदि, सभी को तो हम मां ही मानते हैं, बल्कि मां के नाम से ही पुकारते भी हैं। वर्ष में दो बार वह चाहे शारदीय नवरात्र हों या वासंतिक नवरात्र, में कन्या रूप में मातृ शक्ति की ही तो पूजा करते हैं। शक्ति स्वरूपा दुर्गा के 108 रूप मां के ही तो विभिन्न रूप हैं। इससे यह परिलक्षित होता है कि मां की महिमा अपरंपार है। उसके बिना कुछ भी नहीं। और हम उनके ऋण से कभी मुक्त हो ही नहीं सकते। क्योंकि उनके ममत्व, त्याग,चिंता,परिश्रम और बलिदान का कोई मूल्य ही नहीं है,वह अमूल्य है। यह भी सच है कि उसे शब्दों की किसी भी सीमा में बांधा भी नहीं जा सकता। यह भी कि अपनी संतति और परिवार के लिए किये मां के योगदान को दुनिया की किसी भी तराजू में तौला नहीं जा सकता। यह बात भी कटु सत्य है कि हम उनकी सेवा के उपक्रम भले हजार कर लें,लेकिन हम आजीवन उनके अपराधी ही रहेंगे।
आज वह हमारे बीच नहीं हैं लेकिन जब-जब मैं बहुत परेशान होता हूं तब मुझे यह अहसास जरूर होता है कि वह मेरे साथ खड़ी हैं और कहती हैं कि तू चिंता मतकर, सब ठीक होगा।
उनका आशीर्वाद मेरे लिए किसी वरदान से कम नहीं जिसके कारण ही मुझे समाज में आदर, सम्मान और प्रतिष्ठा मिली और इस योग्य कि मैं समाज के अगाध और प्रेम का पात्र बना। आज मैं जो कुछ भी हूं,उन्हीं की कृपा के कारण हूं। मुझे 1980 का एक वाकया याद आता है, जो उस समय का है जब मैं धर्म समाज कालेज, अलीगढ़ से एल एल बी की पढ़ाई कर रहा था और मां की आंख का आपरेशन अलीगढ़ में ही करा रहा था। मेरे पीछे घर से मेरी सारी किताबें एक बालक ने दो रुपये किलो के भाव बेच दीं । वापस आने पर जब देखभाल और जानकारी की तब हकीकत सामने आयी। उस समय भी उन्होंने कहा था कि जो शिक्षा और पुस्तकों की कद्र नहीं कर सकता, शिक्षा उससे कोसों दूर ही रहेगी। उनकी वह बात अक्षरश सही साबित हुयी। मेरा सौभाग्य रहा कि मैं अपने भाइयों में सबसे ज्यादा उनके पास ही रहा। उन्होंने सदैव कहा कि-” याचक नहीं, दाता बनो, दूसरों के मददगार बनो,जो वास्तव में मदद का हकदार है, उसकी मदद करो, उसका भला करो। अपने लिए नहीं, दूसरों के लिए जियो।” जब कभी जीवन में आये उतार-चढा़व, दुख, पीड़ा,विपन्नता और अपनों के कथनों पर, उनके दिये घावों के बारे में सोचता हूं, तब उनका कथन स्मरण हो उठता है कि-“तुम अपना काम करो और अपने इष्ट पर भरोसा रखो, वही न्याय करेगा,समय उन्हें उसका माकूल जबाव देगा। ” उसके बाद मुझे बहुत शांति मिलती है और फिर मां की यही बात ध्यान कर,सोच कर कि उनका कथन ही मेरे लिए श्रेयस्कर है, पुनःअपने काम में लग जाता हूं। इसी के साथ पूज्या मां और उनकी स्मृति को शत शत नमन,वंदन…….
-ज्ञानेन्द्र रावत
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