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सतरंगी रंग
जुगनू हूं तो क्या,
अंधेरे का हिस्सा तो नहीं हूं
क़र्ज़दार तो हूं ज़माने की,
पर बेईमानी का क़िस्सा तो नहीं हूं,
तुम दिखाते हो मुझे कंकर,
दिख जाते हैं मुझे शंकर
हर ठोकर पर मां और हे राम,
मुंह से निकलना है कितना आसान,
तुम दिखाते हो एक रंग में प्यार,
एक में नफ़रत
मेरे लिए भगवे में है त्याग,
हरे में तुलसी के दर्शन,
मेरे सीने में एक ही दिल धड़कता है,
दो कहां से लाऊं,
जहां बसे हों इंसानियत में ईश्वर,
उसमें धर्म को कैसे बसाऊं,
मुझे अपने होने से प्यार है,
पर दूसरे के होने से भी नहीं इंकार है,
अपना होना है गर्व मेरा,
पर दूसरे का गर्व भी स्वीकार है,
तुम रख लो हिसाब अपनी
नफ़रतों और बंटवारों का
मेरी छोटी सोच में भरा पड़ा है
सामान भाईचारे का,
थक जाओ नफ़रतों से
तो तुम भी यहीं आ जाना,
हवाओं ने, पानी ने, अन्न ने,
अभी भी कोई फ़र्क नहीं है जाना…
@ दामिनी यादव





