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आप बहुत याद आओगे

आज हमारे बीच कत्थक के महान सम्राट पंड़ित बिरजू महाराज नहीं हैं। लेकिन उनका चरित्र हम सब के लिए एक प्रेरणा है। इतने बड़े गुणी होने के बावजूद भी वह जमीन से जुड़े हुए थे।

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प्रकृति का यह नियम है कि जो आया है वह एक दिन जरूर इस दुनिया से जाएगा। हरेक व्यक्ति का यहां अपना-अपना पार्ट है और जब उसका पार्ट पूरा हो जाता है तो वह आगे की यात्रा पर निकल जाता है। आज हमारे बीच कत्थक के महान सम्राट पंड़ित बिरजू महाराज नहीं हैं। लेकिन उनका चरित्र हम सब के लिए एक प्रेरणा है। इतने बड़े गुणी होने के बावजूद भी वह जमीन से जुड़े हुए थे। उनमें जरा भी अहंकार नाम का कोई चीज नहीं था। बच्चों की तरह मासूमियत थी उनमें। जब वे मंच पर नृत्य करते थे तो समा बांध देते थे। सांसे रूक जाती थी। उनके लिए तो प्रकृति के कण-कण में नृत्य था। आज से बीस साल पहले जब मैं उनके घर पर एक इंटरव्यूह लेने के लिए गई थी तो बहुत ही असहज महसूस कर रही थी, क्योंकि इतने बड़े लीजेंड का जो इंटरव्यू लेना था तो थोड़ी घबराहट भी थी। जैसे ही मैं अंदर गई तो मैंने देखा कि वे एक चौकी पर बड़े ही इत्मीनान से बैठे हुए हैं। उन्होंने देखते ही कहा कि अरे आओ, यहां बैठो। उनके बोल में जैसे जादू था। इतना सुनते ही मैं बिल्कुल सहज हो गई। ऐसा महसूस होता था कि जैसे मेरे दादाजी सामने बैठे हों।
उनसे हर विषय पर बातचीत होती थी। वे पेंटिंग भी करते थे और बहुत अच्छा गाते भी थे। इसके साथ ही वे लिखते भी बहुत अच्छा थे। जब वे अपने बचपन के बारे में बताते थे कि किस तरह अम्मा पूर्वजों की कहानियां सुनाया करती थीं और नृत्य की बारिकियों के बारे में भी बताती थीं। उस समय उन्हें देखकर ऐसा लगता था कि वे अपने बचपन के दिनों में चले गए हैं। पतंग उड़ाने में उन्हें बहुत मजा आता था। वे कहते थे कि देखो आसमान में पतंग कितना अच्छा नृत्य कर रही है। जब भी वे अकेले बैठते थे तो नृत्य के बारे में ही सोचते रहते थे कि किस तरह इसमें बदलाव के साथ कुछ नयापन लाया जा सकता है।
अर्चना महाराज जो पंड़ित दीपक महाराज की पत्नी और पंड़ित बिरजू महाराज की बहू हैं। आज के जमाने में वैसी बहू मिलना बहुत मुश्किल है। वह एक बेटी की तरह बाबू यानी महाराज जी का ध्यान रखती हैं। एक ऐसी स्नेही बहू जो एक आवाज पर भाग कर उनके पास चली आती हैं। चाहे वह कितनी भी व्यस्त क्यों न हों। जब बाबू बाहर जाते हैं तो उनका सारा सामान पैक करना, रखना सब कुछ अर्चना जी ही करती हैं। आज उन्हें रोते हुए देखकर ऐसा लग रहा था कि जैसे गोद का बच्चा भगवान ने छीन लिया हो। जब से महाराज जी की तबियत खराब हुई थी। वे अपने हाथ से ही उनको भोजन कराती थीं। एक बहू के रूप में मां हैं। कर्म से ही व्यक्ति महान बनता है और कर्म से ही मां भी बनता है। चाहे बहू हो या बेटी। क्या फर्क पड़ता है। जब भी मैं महाराज जी से मिलती थी तो एकबार जरूर कहती कि महाराज जी आप जरा नाचकर दिखाइए और वे बैठे-बैठे ही अपनी भाव-भंगिमा से भाव विभोर कर देते थे। ऐसे महान शख्स को बार-बार नमन करती हूँ।
-संध्या रानी

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