काम की खबर (Utility News)मेरे अलफ़ाज़/कविता
Trending
उत्तराखंड: समान नागरिक संहिता UCC का पहला राज्य बनकर बनाया इतिहास
इस विधेयक की विशेषता यह रही कि इसमें बहुविवाह और हलाला जैसी प्रथाओं को आपराधिक कृत्य बनाने तथा Live-in में रह रहे जोड़ों के बच्चों को भी सभी अधिकार दिये जाने का प्रावधान है जिनमें कुछ मुद्दों पर विरोधी पक्ष के सदस्यों द्वारा धार्मिक आजादी के हनन की संज्ञा दी गयी
👆भाषा ऊपर से चेंज करें
उत्तराखंड देश का पहला राज्य है जिसने समान नागरिक संहिता यानी UCC विधेयक न केवल विधान सभा में पेश कर एक नया इतिहास रचा है बल्कि उसे पारित कर देश के नव निर्माण में स्वर्णिम योगदान भी किया है। नया इतिहास इसलिए कि कानून बनने के बाद उत्तराखंड आजादी के बाद यूसीसी लागू करने वाला देश का पहला राज्य बन गया है। गौरतलब यह है कि गोवा में पुर्तगाली शासन के दौर से ही यू सी सी लागू है। वहां पुर्तगालियों के शासन के समय सिविल कोड लागू था, वह भी व्यक्तिगत नागरिक मामलों के लिए। गोवा के पुर्तगालियों के चंगुल से आजाद होने के समय एक आदेश द्वारा पुराने जारी कानून को यथावत रखने का प्रावधान किया गया। यही वजह है कि गोवा में अभी भी समान नागरिक संहिता चल रही है। जैसीकि आशा थी कि उत्तराखण्ड विधान सभा में इस विधेयक पर लम्बी चर्चा होगी लेकिन अंततः यह विधेयक राज्य विधान सभा में पारित हो ही गया और अब राजभवन और राष्ट्रपति की मंजूरी के बाद यह कानून का रूप अख्तियार कर ही लेगा। गौरतलब यह है कि बीते शुक्रवार को ही सुप्रीम कोर्ट की समिति द्वारा 740 पृष्ठों वाले इस विधेयक के मसौदे को राज्य के मुख्यमंत्री श्री पुष्कर सिंह धामी को सौंपा गया था। राज्य की विधान सभा में विधेयक पेश होते ही सत्तापक्ष के सदस्यों द्वारा जहां हर्ष व्यक्त किया गया, वहीं उन्होंने मेजें थपथपाकर इसका पुरजोर स्वागत भी किया। वह बात दीगर है कि विरोधी दल कांग्रेस के सदस्यों द्वारा इस विधेयक को जल्दबाजी में पेश विधेयक की संज्ञा दी, वहीं उन्होंने विधेयक पर चर्चा के लिए समय न देने का आरोप भी लगाया। इस विधेयक की विशेषता यह रही कि इसमें बहुविवाह और हलाला जैसी प्रथाओं को आपराधिक कृत्य बनाने तथा लिव-इन में रह रहे जोडो़ं के बच्चों को भी सभी अधिकार दिये जाने का प्रावधान है जिनमें कुछ मुद्दों पर विरोधी पक्ष के सदस्यों द्वारा धार्मिक आजादी के हनन की संज्ञा दी गयी जबकि इस विधेयक जिसे सत्तापक्ष ने सभी वर्गों को साथ लेने वाला विधेयक बताया है जिसमें सभी वर्गों की लड़कियों के लिए शादी की न्यूनतम उम्र 18 वर्ष और लड़कों के लिए 21 वर्ष रखने, शादी के 6 माह के भीतर अनिवार्य तौर पर पंजीकरण करवाने, जिस आधार पर पति तलाक ले सकता है, उसी आधार पर पत्नी द्वारा भी तलाक की मांग किये जाने, पति या पत्नी के रहते हुए दूसरी शादी यानी बहु विवाह पर सख्ती से पाबंदी, लड़के व लड़कियों को समान अधिकार, लिव-इन में रहने के लिए पंजीकरण की अनिवार्यता और विवाहित पुरुष या महिला के लिव-इन में रहने पर पाबंदी, सभी धर्मों के व्यक्तियों के लिए अपनी संपदा की वसीयत करने व बच्चों को उस दंपत्ति का जैविक बच्चे का अधिकार दिया गया है बशर्ते वह दत्तक हो, नाजायज हो या फिर वह सेरोगेसी से ही क्यों न जन्मा हो।
गौरतलब है कि दुनिया में बहुतेरे ऐसे देश हैं जहां समान नागरिक संहिता है। यही नहीं बहुतेरे देशों में बिना किसी जाति-धर्म में भेदभाव किये समान कानून लागू हैं। यहां यह भी जान लेना जरूरी है कि सन 2022 में सऊदी अरब में महिला अधिकारों, तलाक, विवाह की न्यूनतम उम्र को लेकर अपनी संहिता बनायी गयी। और तो और जर्मनी, फ्रांस, अमेरिका, कनाडा, अजरबैजान, इंडोनेशिया, बांग्लादेश आदि मुल्कों में आज भी इस तरह के प्रावधान हैं लेकिन वहां इन कानूनों को लेकर किसी भी तरह की नाइत्तकाफी नहीं है। तात्पर्य यह कि वहां किसी को भी ऐसी कोई शिकायत नहीं है। विचारणीय यह है कि फिर हमारे यहां ही इसका इतना विरोध क्यों? इसका अहम कारण है कि कुछ कट्टरपंथी और निहित स्वार्थी मानसिकता वाले लोग, दल जो अपने राजनीतिक स्वार्थ के चलते वोटों की राजनीति के लिए इसका पुरजोर विरोध कर रहे हैं। उनके अनुसार हमारा देश विविध संस्कृतियों, भाषाओं, प्राकृतिक वैविध्य और विभिन्न धर्मों के अनुयायियों का देश है। उनके अनुसार यहां विविधता में ही एकता के दर्शन होते हैं क्योंकि विविधता ही इसकी पहचान है।समान नागरिक संहिता से सब कुछ एकरस हो जायेगा और देश अपनी विविधता तथा मूल प्रकृति खो देगा। इसे किसी भी किस्म पर स्वीकार नहीं किया जायेगा। यह देश के विरोधी दलों की एकमुश्त राय है। फिर देश का मुस्लिम तबका भी यह मानता है कि यह उनके धर्म शास्त्रों के खिलाफ है, उसके ऊपर सुनियोजित हमला है। हमारी इस्लामी पहचान पर, हमारी आजादी पर हमला है। उनका कहना है कि क्या हम अपने देश में अपनी इस्लामी पहचान के साथ नहीं रह सकते। हमें इस पर विचार करना होगा कि वे क्या वजहें थीं जिनके तहत समाज के अलग-अलग तबकों, वर्गों को अपने-अपने हितों की खातिर विशेष रियायतें क्यों दी गई थी? अब आखिर ऐसा क्या हो गया जिसके चलते ऐसा किया जा रहा है।
यहां इस तथ्य को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता कि आजादी के बाद से कई ऐसे मौके आये हैं, खासकर 1973 के बाद से जबकि सुप्रीम कोर्ट ने बहुतेरे मामलों पर ऐसी टिप्पणी की है कि समान नागरिक संहिता इस देश के लिए जरूरी है। इसे जितनी जल्दी हो लाना चाहिए। पर्सनल सिविल ला को ही लें, उसमें महिलाओं और पुरुषों में असमानता जगजाहिर है। पर्सनल सिविल ला में महिला अधिकारों का हनन कोई छिपी हुयी बात नहीं है। जब सभी को समान अधिकार की बात की जाती है, उस दशा में महिलाओं के साथ भेदभाव क्यों? पर्सनल सिविल ला तो महिला अधिकारों के साथ हनन कहें या भेदभाव की जीती जागती मिसाल है। इसे बरकरार रख समान अधिकार की बात बेमानी है। इसे धार्मिक बाना पहनाकर महिलाओं के साथ जुल्म और भेदभाव की इजाजत तो नहीं दी जा सकती। गौरतलब है कि हमारे यहां व्यक्तिगत मामलों को छोड़कर सभी कानून संविधान सम्मत हैं। हमारे यहां आजादी मिलते वक्त संविधान में उस समय व्यक्तिगत मामलों को इस आशय से छोडा़ गया था कि अभी-अभी देश का बंटवारा हुआ है। इसलिए यह समय समान नागरिक संहिता लाने का उचित नहीं है। इसको उचित समय पर चर्चा करके लाया जाये। यही वह वजह रही कि उस वक्त इस मसले को नीति निर्देशक तत्वों में रख दिया गया और केन्द्र व राज्य सरकारों को यह अधिकार दे दिया गया कि वह उचित समय आने पर इस मुद्दे पर कानून बनायें। यही वजह रही कि 1973 के बाद समय-समय पर सुप्रीम कोर्ट को समान नागरिक संहिता की जरूरत के बारे में टिप्पणी करनी पडी़।
यहां इस सच्चाई को दरगुजर नहीं किया जा सकता कि समान नागरिक संहिता की जरूरत आज जो महसूस की जा रही है, उसके बारे में हमें संविधान सभा में 23 नवम्बर 1948 को हुयी बहस पर ध्यान देना चाहिए जिसमें के एम मुंशी ने कहा था कि –“आपके यहां एक अनुच्छेद है, जिसमें लिखा है कि लिंग के आधार पर कोई विभेद नहीं किया जायेगा। पर आप कोई भी कानून पारित नहीं कर सकते जिसमें स्त्रियों की अवस्था पुरुषों के समान बनायी जा सके। हिन्दुओं में ऐसे बहुत से लोग हैं जो एकविध व्यवहार संहिता नहीं चाहते क्योंकि उनका भी वही मत है, दृष्टिकोण है जो हमारे पूर्व वक्ता मुस्लिम सदस्यों का है। उनकी यह भावना कि उत्तराधिकार आदि का उनका निजी कानून उनके धर्म का हिस्सा है। यदि ऐसा है, तो उदाहरणार्थ आप महिलाओं को समान अधिकार कभी नहीं दे सकते। अतः कोई कारण नहीं कि सारे भारत के लिए एक व्यवहार संहिता क्यों न हो।….मेरे मुस्लिम मित्र यह भली भांति जान लें कि जितनी जल्दी हम जीवन की इस पार्थक्य भावना को भूल जायेंगे, उतना ही देश के लिए अच्छा ही रहेगा।” सभा में हुसैन इमाम साहब ने कहा कि–” श्रीमान, मेरे विचार में एकविध कानून बनाना सर्वथा उपयुक्त तथा अति वांछनीय है, किंतु बहुत समय पश्चात ही ऐसा करना चाहिए। हमें उस समय की प्रतीक्षा करनी चाहिए जब सारा भारत शिक्षित हो जाये, जनसाधारण की निरक्षरता दूर हो जाये, जब लोग प्रगतिशील हो जायें, जब उनकी आर्थिक अवस्था अब से अच्छी हो जाये, जब प्रत्येक मनुष्य अपने पैरों पर खड़ा हो जाये और अपने जीवन संग्राम में स्वयं लड़ सके। तब आप एकविध कानून बना सकते हैं।” बाबा साहेब अम्बेडकर ने भी कहा था कि –“….मैं असंख्य उदाहरण दे सकता हूं कि जिनसे यह सिद्ध हो जायेगा कि इस देश में लगभग एक ही व्यवहार संहिता है। जो एकविध है और समस्त देश में लागू है। अत एव अब तक एक क्षेत्र में व्यवहार कानून हस्तक्षेप नहीं कर सका है, वह विवाह व उत्तराधिकार का है।…हमने वास्तव में उन सब विषयों पर कानून बना दिये हैं जो कि इस देश में एकविध व्यवहार संहिता में निहित होते हैं।”
इसमें दो राय नहीं कि यह जो समान नागरिक संहिता विधेयक तैयार किया गया ,उसके लिए एक विधिवत कमेटी गठित की गयी, उसने पूरे उत्तराखंड में लगभग 20 महीनों में 72 से ज्यादा बैठकें कर और 40 से ज्यादा जन संवाद कर रायशुमारी की, लोगों से ऑनलाइन सुझाव मांगे, सभी वर्गों-धर्मों के लोगों के 2 लाख 33 हजार के लगभग सुझाव आये़ और उसके बाद आम सहमति के उपरांत इस विधेयक को राज्य विधान सभा में पेश किया। यह भी सच है कि उत्तराखंड में पेश इस समान नागरिक संहिता में सभी वर्गों,धर्मों के लिए सुख-समृद्धि व समानता दी गयी है। यह किसी भी जाति,पंथ, धर्म के निजी कानूनों के ऊपर है। अब एक राष्ट्र, एक निशान और एक विधान समय की मांग है। जनसंख्या वृद्धि देश की ज्वलंत समस्या है। यह संहिता देश के दूसरे प्रदेशों के लिए जहां पथ प्रदर्शक का काम करेगी, वहीं देश के जनमानस में जनसंख्या वृद्धि ही नहीं, अन्य समस्याओं को लेकर भी जागरूकता लाने के दायित्व का भी बखूबी निर्वहन करेगी। साथ ही देश से रूढ़िवादी मानसिकता के खात्मे और नये भारत के निर्माण की दिशा में मील का पत्थर बनेगी, ऐसा मेरा मानना है। इससे महिला सशक्तिकरण की प्रक्रिया और मजबूत होगी। क्योंकि इसके बिना महिला सशक्तिकरण की कल्पना ही बेमानी होती। ऐसे अद्भुत प्रयास के लिए उत्तराखंड का योगदान न केवल स्तुति योग्य है बल्कि प्रशंसनीय भी है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं पर्यावरणविद हैं।)