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सिक्किम की त्रासदी: ग्लेशियरों से बनी झील के खतरे -ज्ञानेन्द्र रावत
हिमालय के तमाम ग्लेशियर अलग-अलग दर से लेकिन तेजी से पिघल रहे हैं जिसके चलते हिमालयी नदियाँ किसी भी समय बड़ी प्राकृतिक आपदा का कारण बन सकती हैं।
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पिछले दिनों उत्तरी सिक्किम की चीन सीमा से सटी ग्लेशियर झील साउथ लहोनक में उफान आने और उसके पास बादल फटने से तीस्ता नदी में आयी बाढ़ से अभी भी सेना के 13 जवानों सहित करीब 81 लोग लापता हैं। उनकी तलाश में अभियान जारी है। 9 सैनिकों सहित अभी तक 30 शव मिल सके हैं। 42 शव बंगाल के विभिन्न हिस्सों से निकाले गए हैं। 62 लोग जीवित मिले हैं। तीस्ता किनारे बरदांग में स्थित सेना की स्थायी छावनी के 41 वाहन मलबे युक्त कीचड़ में डूबे हुए हैं। राष्ट्रीय राजमार्ग 10 टूट गया है इससे देश के शेष भाग से सिक्किम का संपर्क टूट गया है, उत्तरी सिक्किम के चार जिलों मंगन, पाक्योंग, नामची एवं गंगटोक की आबादी सबसे ज्यादा प्रभावित हुई है, उन जिलों में बाजार, पुल, बांध एवं सड़कें टूटी पड़ी है, अभी तक बंगाल के जलपाईगुड़ी में 11 हजार लोगों को सुरक्षित निकाला गया है। और सरकार द्वारा 8 अक्टूबर तक सभी स्कूल-कॉलेज बंद करने की घोषणा की गयी है। सड़क और पुल बहने से संचार व्यवस्था ठप्प होने से राहत कार्यों में लगे एनडीआरएफ एसडीआरएफ आदि बचाव दल को मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा है। लाचुंग व लाचेन में 3,000 से ज्यादा पर्यटक फंसे हुए हैं। मौसम में खराबी के चलते राहत में लगे हेलीकॉप्टर उड़ान नहीं भर पा रहे हैं। चुंगथांग, लाचेन और लाचुंग में राहत कार्य शुरू नहीं हो सका है। 6,675 लोग राहत शिविरों में शरण लिए हैं। 1,320 से ज्यादा मकान ध्वस्त या क्षतिग्रस्त हुए हैं। इस तबाही से कुल मिलाकर 41,870 लोग प्रभावित हुए हैं। दरअसल इस तबाही का मुख्य कारण जीएलोएफ जिसे ग्लेशियर लेक आउटबर्स्ट फ्लड कहते हैं यानी ल्होनक झील में उफान आने और तीस्ता नदी का जलस्तर अचानक 20 फीट तक बढ़ जाने,चुंगथांग बांध टूटने और सिक्किम के चुंगथाम इलाके में स्थित ल्होनक झील के ऊपर बादल का फटना माना जा रहा है। यह झील ल्होनक ग्लेशियर पर बनी है। बादल फटने के बाद पानी के तेज बहाव के चलते लेक की दीवारें टूट गयी और भारी मात्रा में मलबे के साथ पानी तीस्ता में आया जिससे नदी का जलस्तर काफी बढ़ गया। इससे समूची लाचेन घाटी में चारो ओर तबाही का मंजर है। तीस्ता किनारे फार्मास्युटिकल कंपनियां और जलविद्युत परियोजनाओं के परिसरों में काफी नुकसान हुआ है और नदी किनारे रहने वाले करीब 15-20 हजार लोग बेघर हुए हैं। यहां गौरतलब है कि यह आपदा प्राकृतिक जरूर है लेकिन इसे पूरी तरह अप्रत्याशित नहीं कहा जा सकता। वह बात दीगर है कि इसे केन्द्रीय जल आयोग के अधिकारी नेपाल और भारत में आये भूकंप को सिक्किम में आयी बाढ़ का एक कारण भले करार दें लेकिन इसके साथ-साथ इस सच्चाई को भी दरगुजर नहीं किया जा सकता कि 168 हेक्टेयर क्षेत्र में फैली यह झील पहले से ही असुरक्षित घोषित थी। वह बात दीगर है कि अब इस झील का क्षेत्रफल कुछ जानकार 60 हेक्टेयर कम बता रहे हैं लेकिन इससे इस झील के खतरनाक होने के अंदेशे को नकारा नहीं जा सकता। उस हालत में जबकि राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण पहले ही सिक्किम की 25 हिमनद झीलों को खतरनाक घोषित कर चुका है जिनमें ल्होनक समेत 14 झील अत्याधिक संवेदनशील करार दी जा चुकी हैं। देखा जाये तो जीएलओएफ तब होता है जब हिमनद झीलों का जलस्तर काफी ज्यादा बढ़ जाता है। इससे बड़ी मात्रा में पानी पास की नदियों और धाराओं में बहने लगता है जिसके कारण अचानक बाढ़ आ जाती है जो तबाही का कारण बनती है। यहां इस तथ्य को भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता कि वैश्विक तापमान वृद्धि के चलते तेजी से पिघल रहे इस ग्लेशियर का पानी इसी झील में जमा हो रहा था और उसी के कारण इस झील का क्षेत्रफल लगातार बढ़ता जा रहा था। यह भी कि इसी साल मार्च महीने में संसद में पेश रिपोर्ट में यह चेताया गया था कि हिमालय के तमाम ग्लेशियर अलग-अलग दर से लेकिन तेजी से पिघल रहे हैं जिसके चलते हिमालयी नदियाँ किसी भी समय बड़ी प्राकृतिक आपदा का कारण बन सकती हैं।
दरअसल दुनिया में हो रहे नित नये-नये शोध इस बात के प्रमाण हैं कि भले ही ग्लोबल वार्मिंग को 1.5 डिग्री सेल्सियस तापमान पर रोक दिया जाए, इसके बावजूद दुनिया में करीब दो लाख पंद्रह हजार ग्लेशियरों में से आधे से ज्यादा और उनके द्रव्यमान का एक चौथाई हिस्सा इस सदी के अंत तक पिघल जायेगा। यह पेरिस समझौते के लक्ष्य से भी परे है। असलियत यह है कि ग्लोबल वार्मिंग के चलते दुनियाभर के ग्लेशियर पिघल -पिघलकर टुकड़ों में बंटते चले गये। वैज्ञानिकों ने आशंका व्यक्त की है कि इन हालातों में सदी के अंत तक दुनिया के आधे से ज्यादा ग्लेशियर पिघल जायेंगे।
इसका मुकाबला इसलिए और जरूरी है कि हमारी धरती आज जितनी गर्म है उतनी मानव सभ्यता के इतिहास में कभी नहीं रही है। सबसे ज्यादा चिंता की बात यह है कि ग्लेशियर पिघलने से बनी झीलों से आने वाली बाढ़ से भारत समेत समूची दुनिया के करीब डेढ़ करोड़ लोगों के जीवन पर खतरा मंडराने लगा है। ब्रिटेन के न्यू कैसल यूनिवर्सिटी के शोध से इसका खुलासा हुआ है। इसमें सबसे ज्यादा खतरा भारत के लोगों को है जहां तीस लाख से ज्यादा लोगों का जीवन ग्लेशियर से आने वाली बाढ़ के कारण खतरे में है। इसके बाद पाकिस्तान का नम्बर है जहां करीब 7000 से ज्यादा ग्लेशियर हिमालय, हिन्दूकुश और काराकोरम पर्वत श्रृंखलाओं में मौजूद हैं जहां की बीस लाख से भी ज्यादा आबादी पर यह खतरा मंडरा रहा है।
गौरतलब है कि जैसे जैसे जलवायु गर्म होती है, उसी तेजी से ग्लेशियर पिघलते हैं और पिघला हुआ पानी ग्लेशियर के आगे जमा हो जाता है और वह झील का रूप अख्तियार कर लेता है। ये झीलें अचानक फट भी सकती हैं। झीलें फट पड़ने की स्थिति में इनका पानी तेजी से बहता है और 120 किलोमीटर से भी अधिक इलाके को अपनी जद में ले लेता है। इन हालात में आयी बाढ़ काफी भयावह और विनाशकारी होती है जो जन-धन, संपत्ति, कृषि भूमि, बुनियादी ढांचे, लोगों सहित सभी कुछ मानकों में तबाह कर देती है। गौरतलब है कि 1990 के बाद से जलवायु परिवर्तन के चलते ऐसी झीलों की तादाद में काफी तेजी से बढ़ोतरी हुई है। 2021 में फरवरी माह में उत्तराखंड के चमोली जिले में आयी बाढ़ ऐसी ही आपदा का परिणाम थी जिसमें अनुमानतः सैकड़ों लोगों की मौत हो गयी थी और बहुतेरे लापता हो गये जिनका आजतक पता ही नहीं चल सका है।
असलियत यह है कि दुनिया में वैज्ञानिकों की सोच से भी ज्यादा तेजी से ग्लेशियर खत्म हो रहे हैं। वैज्ञानिकों और पर्यावरणविदों की एकमुश्त राय है कि अब दुनिया के ग्लेशियरों की निगरानी बेहद जरूरी है। कानेंगी मेलन यूनिवर्सिटी और फेयरबैंक्स यूनिवर्सिटी के शोध ने इसका खुलासा कर दिया है कि यदि जलवायु परिवर्तन की दर इसी तरह बरकरार रही तो इस सदी के आखिर तक दुनिया के दो तिहाई ग्लेशियरों का अस्तित्व ही खत्म हो जायेगा। और यदि दुनिया आने वाले दिनों में वैश्विक तापमान को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक रखने में कामयाब रहती है उस हालत में भी आधे ग्लेशियर गायब हो जायेंगे। हकीकत में हम बहुत सारे ग्लेशियर खोने जा रहे हैं। इसका सीधा-साधा मतलब है कि 2100 तक दुनिया के ग्लेशियरों का 32 फीसदी हिस्सा यानी 48.5 ट्रिलियन मेट्रिक टन बर्फ पिघल जायेगी। इससे जहां बाढ़ का खतरा बढ़ेगा, वहीं समुद्री जल स्तर में और 115 मिलीमीटर की बढ़ोतरी होगी। समुद्र के जलस्तर में यदि 4.5 इंच की बढ़ोतरी होती है तो समूची दुनिया में करीब एक करोड़ से अधिक लोग उच्च ज्वार रेखा से नीचे होंगे। तात्पर्य यह कि समुद्र तटीय रहने वाले लोग इससे सर्वाधिक प्रभावित होंगे और उन्हें ज्यादा मुश्किलों का सामना करना पडे़गा।
अब यह जगजाहिर है कि ग्लेशियरों के पिघलने से ऊंची पहाड़ियों में तेजी से कृत्रिम झीलें बनेगी और इन झीलों के टूटने से बाढ़ तथा ढलान पर बनी बस्तियों तथा वहां रहने-बसने वाले लोगों पर खतरा बढ़ जायेगा। इससे पेयजल समस्या तो विकराल होगी ही, पारिस्थितिकी तंत्र भी प्रभावित हुए नहीं रहेगा जो भयावह खतरे का संकेत है। ग्लेशियरों पर मंडराते संकट को नकारा नहीं जा सकता। यदि यह पिघल गये तो ऐसी स्थिति में सारे संसाधन खत्म हो जायेंगे और ऐसी आपदाओं में बेतहाशा बढ़ोतरी होगी। इसलिए जहां बढ़ते तापमान और जलवायु परिवर्तन से प्राथमिकता के आधार पर लड़ना जरूरी है, वहीं ग्लेशियरों की निगरानी और उनसे बनी झीलों से उपजे संकट का समाधान भी बेहद जरूरी है। वैज्ञानिक और पर्यावरणविद बरसों से चेता रहे हैं कि पर्वतीय क्षेत्रों में बुनियादी ढांचों,बस्तियों और पनबिजली परियोजनाओं का बेतहाशा निर्माण और ग्लेशियर पिघलने से बनी झीलों की तादाद में बढ़ोतरी बेहद चिंता का विषय है। इस पर अंकुश लगना चाहिए। सबसे बडी़ बात यह कि बांधों से हिमालयी पारिस्थितिकी तंत्र सबसे ज्यादा प्रभावित होता है जिसकी चिंता किसी को नहीं है। यहां इस सच्चाई से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि ग्लोबल वार्मिंग जैसी वैश्विक समस्या से कोई सरकार अकेले नहीं निपट सकती लेकिन अपने यहां के बड़े और संवेदनशील ग्लेशियरों की स्थिति पर लगातार नजर रखते हुए संभावित खतरों से निपटने की तैयारी तो कर ही सकती हैं। और संवेदनशील इलाकों में रहने वालों को सचेत करके आपदा से बचाव और उससे होने वाले नुकसान को कम से कम करने के प्रयास तो किये ही जा सकते हैं।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं पर्यावरणविद हैं।)