दोष हमारा या बच्चों का ?
मोबाइल का मोहजाल... फंसे हैं हम सभी....
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आज के इस तकनीकी युग में इलेक्ट्राॅनिक गेज़ेट्स खासतौर पर मोबाइल का ही बोलबाला है। ऐसा लगता है यदि ज़िंदगी में से मोबाइल को निकाल दिया जाये तो मानो दुनिया ही खत्म हो जायेगी। पहले के लोग कहा करते थे कि सुबह की पहली किरण खुशियों का पैगाम लाती है लेकिन अब तो सुबह की पहली या दूसरी किरण को देखने की फुरसत ही किसको है? सुबह नींद खुलते ही हर किसी के हाथ बस मोबाइल टटोलते हैं। और बस मोबाइल हाथ में आते ही उसमें ऐसे डूब जाते हैं कि समय का पता ही नहीं चलता। चाय-नाश्ता भी मोबाइल के साथ। खाना-पीना भी मोबाइल के साथ। उठना-बैठना भी मोबाइल के साथ। सोना-जागना भी मोबाइल के साथ। आलम तो यह है कि टाॅयलेट में भी मोबाइल ले जाते हैं। और हम बोलते हैं कि आजकल के बच्चे मोबाइल के बड़े एडिक्ट हो गये है। अरे भई, एडिक्ट वो नहीं बल्कि हम हुए हैं और हमारे इस नशे में बेचारे बच्चे डूब रहे हैं। मोबाइल के इसी मोहजाल… के दलदल की गहराई मापने की कोशिश की अंजू सागर भंडारी ने और बातचीत की बालरोग तज्ञ से लेकर मनोरोग विशेषज्ञ, काउंसलर, प्रिंसिपल, चश्मावाला व कुछ पेरेंट्स से………
डाॅ. अनिल कुमार कुराड़े (बालरोग तज्ञ)
एम.डी. पिडयट्रिक (गोल्ड मेडलिस्ट) पिछले 40 सालों से अहमदनगर, महाराष्ट्र में चिकित्सा क्षेत्र में कार्यरत
सांईदीप हाॅस्पिटल के डायरेक्टर व हेड ऑफ डिपार्टमेंट पिडयट्रिक व नियोनेटोलाॅजी का कहना है कि आजकल तो बच्चों को टेक्नोलाॅजी से दूर रख पाना लगभग असंभव सा हो गया है। स्वयं मेरा पोता 1 वर्ष का ही है लेकिन उसे टी.वी, ए.सी, फैन मतलब रिमोट से चलने वाले सभी उपकरणों के ऑन-ऑफ स्विच बटन मालूम है। उसे किसी ने नहीं सिखाया है लेकिन फिर भी उसे कैसे सब आता है यह सब देखकर मैं भी हैरान होता हूं। जहां तक बात है मोबाइल की तो आजकल तो कोरोना काल में सभी ऑनलाइन हो गया है इसलिये हम सभी मजबूर हैं। लेकिन जरूरत से ज्यादा मोबाइल का इस्तेमाल करने से बच्चों के शारीरिक और मानसिक दोनों रूपों से उन पर बुरा प्रभाव पड़ रहा है। ज्यादा समय मोबाइल या अन्य स्क्रीन के सामने बैठने से उनकी आखों पर बहुत अधिक बुरा प्रभाव पड़ रहा है। यही नहीं संसार भर में डाॅक्टर्स इसी निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि ब्रेन कैंसर का अनुपात बढ़ने का कारण भी मोबाइल ही है। मोबाइल और इंटरनेट की वजह से ही बच्चों में चिड़चिड़ापन के केस भी तेज़ी से बढ़ रहे हैं क्यूंकि अपनी पोस्ट डालने के बाद कितने लाइक्स मिल रहे हैं और कैसे कमेंट्स आ रहे हैं अब बस बच्चों की खुशी और मूड इसी पर निर्भर होकर रह गया है। इससे बचने के लिये मैं पेरेंट्स को यही सलाह देना चाहूंगा कि आप बच्चों को मोबाइल इंटरनेट दें लेकिन उन पर निगरानी भी रखें कि वे उसका गलत इस्तेमाल न करें। और साथ ही उनकी ऑन स्क्रीन टाइम (मोबाइल और कंप्यूटर या टी.वी सब मिलाकर) 2 घंटे से ज्यादा नहीं होना चाहिए। और तीसरी बात यह कि जितना अधिक हो सके बच्चों के सामने मोबाइल का इस्तेमाल न करें।
अर्चना भरत बेताला, बागलकोट, कर्नाटक (पेरेंट)
हमें पता है कि ज्यादा मोबाइल देखना बच्चों के लिए अच्छा नहीं है लेकिन दरअसल परिस्थिति ऐसी है कि अब हमारे हाथ में कुछ भी नहीं रहा। हमें न चाहते हुए भी उन्हें मोबाइल देना ही पड़ता है। कभी खाना खिलाने के लिये तो कभी रोते हुए बच्चे को चुप करने के लिए, कभी उनका मन बहलाने के लिये तो कभी उनकी जिद् पूरी करने के लिये। मतलब अब हमारे पास मोबाइल के अलावा कोई चारा ही नहीं बचा है। बच्चे बात-बात पर मोबाइल की डिमांड करते हैं और हम हर बार उनकी बात पूरी करने के लिए उन्हें मोबाइल दे देते हैं। सबसे ज्यादा तो हम तब लाचार नज़र आते हैं जब वे खाना नहीं खाते तब उनके हाथ में मोबाइल देकर आप चाहे उन्हें करेले की सब्जी भी खिला दो उन्हें कुछ पता नहीं चलेगा। अब क्यूंकि हम इतनी मेहनत से उनके लिए हेल्दी फूड बनाते हैं तो हम भी नहीं चाहते कि हमारा बनाया हुआ खाना वेस्ट जाए तो हम उन्हें खुशी-खुशी मोबाइल दे देते हैं और वे खुशी-खुशी खाना खा लेते हैं। वो भी खुश और हम भी खुश। हमारे घर में छोटे से छोटा बच्चा भी वोइस सर्च पर अपना पसंदीदा शो लगाकर ही खाना खाता है। कई बार तो बच्चे शर्त रखते हैं कि आप हमें मोबाइल दीजिए तभी हम ब्रश करेंगे, आप हमें मोबाइल देंगे तो ही हम शांत बैठेंगे, आप हमें मोबाइल नहीं दोगे तो हम आपको बाहर नहीं जाने देंगे, आप हमें मोबाइल दो तो ही हम झगड़े नहीं करेंगे….. वगैरह वगैरह लिस्ट बहुत लंबी है। और अब इस दलदल से निकलने का कोई रास्ता नज़र नहीं आता। सच बताउं तो मोबाइल अब हमारी ज़िंदगी का अहम हिस्सा बन चुका है, उसके बिना हम जीवन की कल्पना भी नही कर सकते।
डाॅ. श्यामा मंत्री (चाइल्ड एंड वुमेन साइकाॅलाॅजी, लाईफस्टाइल कांउसलर)
मोबाइल के एडिक्शन की बात की जाए तो मैं यही कहना चाहूंगी कि बच्चे ही क्यूं हम सभी बड़े भी इस नशे के शिकार हैं। बच्चे चिंता का कारण इसलिये भी बन गये हैं क्यूंकि आजकल दो या एक ही बच्चा होता है परिवार में इसलिये ऐसे माहौल में उनका भविष्य सचमुच खतरे के दायरे में आ गया है। और अब ऐसे में पेरेंट्स को उस बच्चे पर बहुत मेहनत करनी पड़ेगी उसका भविष्य बनाने के लिये। ऐसे में मोबाइल एडिक्शन का टाइम पीरियड 6 साल से लेकर 28 साल तक जब यही मेन टाइम है कि बच्चे को प्राइमरी, सकेंड्री एजूकेशन से लेकर ग्रेजुएशन, और हायर लेवल तक की स्टडी करनी होती है। ज़िंदगी के ऐसे महत्वपूर्ण टाइम फेज़ में जब बच्चों का ध्यान, उनका फोकस 100 प्रतिशत उनकी स्टडीज़ पर होना चाहिए तब ऐसे में अगर 20 प्रतिशत मांइड डाइवर्ज़न है और 80 प्रतिशत फोकस हैं तब भी बात बन सकती है लेकिन आज तो हालात ऐसे हैं कि 20 प्रतिशत ही कान्सनट्रेशन है और 80 प्रतिशत बच्चों का ध्यान मोबाइल इंटरनेट, सोशल मीडिया में भटका हुआ है। और यही है सभी पेरेंट्स की चिंता का मुख्य कारण। ऐसे हालात में, मैं पेरेंट्स को यही सलाह देना चाहूंगी कि वे स्वयं का आत्मनिरीक्षण करें क्यूंकि एक उंगली अगर बच्चे की तरफ है तो चार उंगलियां तुम्हारी तरफ हैं। आप बच्चे को कोसने, ताने मारने और उसकी तुलना दूसरे बच्चों से करने में ही एक्सपर्ट हैं लेकिन हम यह कभी नहीं सोचते कि मेरे बच्चे के लिये मैं क्या करूं कि मेरा बच्चा इस दलदल से बाहर निकले। जब तक हमारी यह मेंटेलिटी नहीं होगी तब तक कुछ नहीं हो सकता। ज़रा अपने बच्चे के मोबाइल एडिक्ट होने का सही कारण ढ़ूंढ़ने की कोशिश तो कीजिये। कारण मिलते ही आपको उपाय भी नज़र आ जायेगा। बच्चा वह नहीं करता जो आप उसे करने के लिये बोलते हो बल्कि बच्चा वह करता है जो आप करते हो। बच्चा आपको देखकर ही सीखता है। जैसे मुझे पुस्तकों से बहुत प्यार है। मेरे बच्चों ने बचपन से मुझे बुक्स के साथ ही देखा । मैंने 45 साल की उम्र में एम.ए. की परीक्षा दी। मेरी बेटी की शादी थी तब मैं फाइनल एग्ज़ाम दे रही थी। तो मेरे बच्चों ने यह सब देखा है। इसलिये वे भी मेरे जैसे ही हैं, कंप्लीटली इनटू-स्टडीज़। मेरा बेटा अभी यूरोप से आया और जानते हैं उसने क्या ऑर्डर किया? उसने बहुत सारी बुक्स ऑर्डर की, क्यूंकि उनकी डिलीवरी वहां नहीं होती। यदि आप दिनभर मोबाइल देखते हैं इसलिये आपका बच्चा भी देखता है। आप अपने आप से ज़रा पूछिये कि जब भी आप मोबाइल, लेपटाॅप या कंप्यूटर के जरिये इंटरनेट पर बैठते हैं तब कितने समय काम का काम करते हैं और कितना समय टाइम-पास करते हैं। पूछिये अपने आप से। कई बार तो फेसबुक या इंस्टाग्राम खोलने के बाद हम उसमें इतना खो जाते हैं कि एक घंटा कब बीत जाता है पता ही नहीं चलता और यह भी याद नहीं रहता कि मैंने फेसबुक या इंस्टाग्राम आखिर खोला क्यूं था। जब हमारा यह हाल है तो फिर बेचारे बच्चों को क्यूं कोसते हो! अगर आप बच्चे को सुधारना चाहते हो तो कुछ मत करो सिर्फ अपना बिहेवियर चेंज करो, बच्चा अपने आप चेंज हो जायेगा।
सचिन सुभाष पुरी (न्यू भारत चश्मावाला के ओनर)
इस महामारी के दौर में हमारे पास मोबाइल या कंप्यूटर का कोई विकल्प नहीं है। बच्चों की सभी शिक्षा मोबाइल और कंप्यूटर पर ही चल रही है लेकिन हम यह नहीं जानते हैं कि मोबाइल और कंप्यूटर बच्चों की आंखों के लिये बहुत खतरनाक हैं। मैं न्यू भारत चश्मावाला के नाम से पिछले 20 सालों से अहमदनगर में काम कर रहा हूं। मैंने सालों से बच्चों की आंखों से जुड़ी समस्याऐं देखी हैं लेकिन पिछले एक साल में बच्चों में धुंधला दिखना, आंखें लाल होना, आंखों का सूखना, यहां तक कि छोटे-छोटे बच्चों में भी हाई पावर का चश्मा लगना जैसी गंभीर समस्याओं से जूझते हुए देख रहा हूं। और यह सब ऑनलाइन क्लास और मोबाइल गेमिंग के कारण ही हो रहा है। और इन सबके लिए बहुत हद तक स्वयं पेरेंट्स ही ज़िम्मेदार हैं क्यूंकि अगर बच्चा खाना नहीं खा रहा है तो वे उसे मोबाइल देते हैं। बच्चा किसी भी कारण रोता है, तब भी उसे मोबाइल रूपी खिलौना हाथों में थमा कर चुप कर दिया जाता है। माता-पिता को ऐसा कतई नहीं करना चाहिये क्योंकि बच्चों का मस्तिष्क 14 साल की उम्र तक विकसित होता है ऐसे में उन्हें एक हेल्दी एटमाॅस्फेयर की आवश्यकता होती है जैसे कि उसे खुले मैदान में जाकर खेलना चाहिए लेकिन आजकल तो मोबाइल, कंप्यूटर और टी.वी ही बच्चों के मनोरंजन का मुख्य आकर्षण बने हुए हैं। ऐसे में हमें बच्चों की आखें समय-समय पर चैक कराते रहना चाहिए और ध्यान रखना चाहिए कि बच्चे ज़रूरत के मुताबिक ही मोबाइल देखें।
डाॅ.अमित सपकाल
एम.बी.बी.एस, डी. पी. एम. (पुणे) मनोचिकित्सक व व्यसनमुक्ति, लैंगिंक समस्यातज्ञ
आजकल हर घर में एंडराॅएड फोन हो गये हैं। बच्चे तो बच्चे सभी पेरेंट्स भी आजकल मोबाइल, व्हाॅट्सेप, फेसबुक के एडिक्ट हो चुके हैं। हम बोलते हैं कि बच्चों को अधिक मोबाइल यूज़ नहीं करना चाहिऐ लेकिन हम खुद इतना अधिक मोबाइल देखते हैं कि बच्चे हमें बार-बार देखकर सीखते हैं। और दूसरी चीज़ कि जब हम कुछ काम करते हैं और हमें लगता है कि बच्चे हमेें तंग न करें, डिस्र्टब न करें तो भी पेरेंट्स उन्हें कहीं और इंगेज रखने के लिये मोबाइल दे देते हैं। एक और कारण है कि कुछ पेरेंट्स को लगता है कि हमारा बच्चा टेक्नोलाॅजी में आगे बढ़ना चाहिये इसलिये भी उसे मोबाइल देते हैं। बच्चा बड़े स्मार्ट तरीके से स्मार्ट फोन यूज़ कर रहा है देख कर मां-बाप बड़े खुश होते है, गर्व महसूस करते हैं। बहुत से पेरेंट्स मोबाइल एडिक्शन के साइड इफेक्ट्स से अवेयर नहीं हैं इसलिये भी वे बच्चों को नहीं रोकते। मोबाइल एडिक्शन के साइड इफेक्ट्स की बात करें तो 5-6 साल से छोटे बच्चों में बहुत ज्यादा मोबाइल में ध्यान लगाने से उनमें अटेंशन डेफिसिट हो जाता है। दूसरा, उनकी परिवार में माता-पिता और दूसरे सदस्यों से इमोशनल बाॅंडिंग कम हो जाती है। और 10 साल के ऊपर के बच्चे मोबाइल के एडिक्शन के साथ-साथ पाॅर्न साइट्स की तरफ जुड़ने लगते हैं। और उनमें पाॅर्नोग्राफी का एडिक्शन बढ़ने लगता है। इसी के साथ ही पबजी गेम वगैरह के कारण बच्चों के बिहेवियर में वाॅयलेंस और डिप्रैशन भी बढ़ रहा है। व्हाॅट्सेप और फेसबुक पर लाइक्स या कमेंट्स न मिलने पर भी बच्चे परेशान हो जाते हैं, डिप्रैस हो जाते हैं। ऐसे माहौल में पेरेंट्स को चहिये कि बिना वजह का मोबाइल यूज़ बंद करें। मतलब, दिनभर गुड माॅर्निंग, गुड नाइट के मेसेज भेजना और उनके रिप्लाय भेजना बंद करें। सिर्फ और सिर्फ काम के लिये मोबाइल का इस्तेमाल करें। इसके अलावा टाइम पास के लिये मोबाइल देखना सख्ती से बंद करें।
श्री मंगेश जगताप (प्रिंसिपल ऑफ पोदार इंटरनेशनल स्कूल, केडगाव, अहमदनगर)
भगवान ने हम मनुष्यों को बहुत उपहार दिये हैं। और इन्हीं उपहारों में उसने एक सबसे बेहतरीन और जादुई उपहार दिया है, टेक्नोलाॅजी। जी-हां आजकल स्कूलों के लिए तो टेक्नोलाॅजी किसी वरदान से कम नहीं है। शिक्षा के क्षेत्र में और अधिक सीखने के अवसर बढ़ गये हैं। इसका प्रयोग करके शिक्षक खुद डाटा इकठ्ठा करके, एनालाइज़ करके फिर बच्चों को सिखा रहे हैं।
टेक्नोलाॅजी भगवान का एक उपहार है। जीवन के उपहार के बाद, यह शायद भगवान के उपहारों में सबसे बड़ा है। यह सभ्यताओं की, कलाओं की और विज्ञान की ’मां’ है। टेक्नोलाॅजी ने निश्चित रूप से हमारे जीने के तरीके को बदल दिया है। इसने जीवन के विभिन्न पहलुओं को प्रभावित किया है और जीवन को पुर्नभाषित किया है। निसंदेह, टेक्नोलाॅजी जीवन के हर क्षेत्र में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। कई मैनुअल कार्यों को स्वचालित किया जा सकता है, टेक्नोलाॅजी को धन्यवाद। साथ ही आधुनिक टेक्नोलाॅजी की मदद से कई जटिल और महत्वपूर्ण प्रक्रियाओं को आसानी और अधिक दक्षता के साथ किया जा सकता है। टेक्नोलाॅजी के कारण जीवन बदल गया है और यह अच्छे के लिये बदला है-थैंक्स टू टेक्नोलाॅजी। शिक्षा के क्षेत्र में सचमुच टेक्नोलाॅजी ने तो क्रांति ही ला दी है। स्कूलों में टेक्नोलाॅजी के महत्व को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता। वास्तव में शिक्षा में कंप्यूटर की शुरूआत के साथ, शिक्षकों के लिये ज्ञान प्रदान करना और छात्रों के लिये इसे प्राप्त करना आसान हो गया है। टेक्नोलाॅजी के उपयोग ने शिक्षण और सीखने की प्रक्रिया को और अधिक सुखद बना दिया है।
सकारात्मक प्रभाव
टेक्नोलाॅजी की वजह से टीचिंग एंड लर्निंग स्किल में बढ़ोतरी हुई है। टेक्नोलाॅजीकल डेवलपमेंट जैसे डिजिटल कैमरा, प्राॅजेक्टर, माइंड ट्रेनिंग साॅफ्टवेयर, कंप्यूटर, पावरपाॅइंट प्रेज़ेंटेशन, 3डी विज़ुअलाइज़ेशन टूल्स छात्रों को आसानी से कोई भी काॅन्सेप्ट समझाने में टीचर्स के लिए बेहद मददगार साबित हुए हैं। यह समझना बहुत ज़रूरी होगा कि विज़ुअल एक्सप्लेनेशन छात्रों के लिए सीखने को फन लर्निंग और मज़ेदार बनाता है। वे क्लास में और अधिक पार्टीसिपेट करने में सक्षम हैं और यहां तक कि शिक्षकों को अपनी क्लास को और अधिक इंटरैक्टिव और दिलचस्प बनाने का मौका मिलता है।
ग्लोबलाइज़ेशन
जब राज्य के अलग अलग हिस्सों में स्कूल है, तो छात्र क्लास छोड़े बिना विडियो काॅन्फ्रेंसिंग के माध्यम से अपने क्लासमेट्स से मिल सकते हैं। कुछ साइट्स जैसे www.glovico.com का उपयोग छात्रों को विदेशी भाषा सीखने में मदद के लिए ऑनलाइन किया जाता है, छात्रों के समूह को दूसरे देश के टीचर्स के साथ जोड़कर। इसकी कोई भोगोलिक सीमाएं नहीं हैं ऑनलाइन डिग्री कार्यक्रमों की शुरूआत के साथ क्लास में फिज़िकली प्रेंज़ेंट रहने की शायद कोई आवश्यकता ही नहीं रही है। यहां तक कि कई विदेशी विश्वविद्यालयों ने ऑनलाइन पाठ्यक्रम शुरू किये हैं, जिसमें छात्र शामिल हो सकते हैं। डिस्टेंस लर्निंग एंड ऑनलाइन एजुकेशन शिक्षा प्रणाली का एक महत्वपूर्ण हिस्सा बन गये हैं।
नकारात्मक प्रभाव
लेखन कौशल में गिरावट:- ऑनलाइन चैटिंग और शाॅर्टकट के अत्यधिक उपयोग के कारण, आज की युवा पीढ़ी के लेखन कौशल में काफी गिरावट आई है। इन दिनों बच्चे डिजिटल संचार पर अधिक से अधिक भरोसा कर रहे हैं, वे अपने लेखन कौशल में सुधार के बारे में पूरी तरह से भूल गए हैं। वे अलग-अलग शब्दों की वर्तनी नहीं जानते, व्याकरण का सही उपयोग कैसे करें या कर्सिव राइटिंग कैसे करें इसमें भी उनका कोई इंटरेस्ट नहीं है।
फोकस का अभावः-एसएमएस या टेक्स मेसेजिंग कई छात्रों का फेवरेट टाइमपास बन गया है। उन्हें दिन-रात मोबाइल फोन चाहिए होता है, यहां तक कि ड्राइविंग और लेक्चर के बीच में भी उन्हें मोबाइल का इस्तेमाल करते हुए देखा गया है। हमेशा ऑनलाइन रहने की होड में उनमें पढ़ाई को लेकर एकाग्रता की कमी हुई है, और कुछ हद तक खेलों में भी बच्चों की रूचि कम होती देखी गई है।
बेरोजगारीः- हां- टेक्नोलाॅजी अपने साथ बहुत सारी अच्छी चीज़े लेकर आई है लेकिन इसकी वजह से बेरोजगारी और गरीबी भी बहुत बढ़ गयी है, जहां लोग खुशहाल जीवन नहीं जी पा रहे हैं या फिर उन्हें निम्न-स्तर की जीवनशैली जीनी पड़ रही है।
कुछ लोग लैपटाॅप, स्मार्टफोन, कंप्यूटर आदि का खर्च नहीं उठा सकते, हालांकि शिक्षा उनका अधिकार है लेकिन गरीबी के कारण ग्रामीण क्षेत्र बुरी तरह से पीड़ित हैं। बच्चे इस श्रेणी में आते हैं जिनमें शिक्षा और वर्तमान स्थिति का अभाव है। प्रश्न अनुत्तरित हैं! इस परिस्थिति के लिए कौन जिम्मेदार है?? हमें यह सवाल खुद से पूछना होगा, क्योंकि हम इस सवाल का सही जवाब जानते हैं।
इस प्रकार टेक्नोलाॅजी का शिक्षा पर सकारात्मक प्रभाव पड़ा है और साथ ही नकारात्मक प्रभाव भी पड़ सकता है। शिक्षकों और छात्रों को इसकी अच्छाइयों से लाभ उठाना चाहिये और उन कमियों को खत्म करना चाहिये जो कई छात्रों के साथ-साथ स्कूलों को भी उत्कृष्टता हासिल करने में पीछे खींच रही हैं। इस प्रकार यह भविष्य में हर देश के लिए एक अधिक तकनीकी रूप से सुसज्जित शिक्षा-क्षेत्र शुरू करने का समय है।
अंजू सागर भंडारी