मेरे अलफ़ाज़/कवितासाहित्य

बाज़ार वाद से सामाजिक व्यवस्थाओं और आम आदमी को खतरा -रामभरोस मीणा

समय की मांग है कि वर्तमान व्यवस्थाओं में बदलाव लाकर उनमें पुरातन सामाजिक व्यवस्थाओं से तालमेल बिठाना आवश्यक होगा, जिससे प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण, जल जंगल, जानवरों के प्रति सुरक्षा का भाव आम व्यक्ति में पैदा हो सके। यही विकास का आधार हो सकता है।

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भारत कृषि प्रधान देश होने के साथ यहां की 85 प्रतिशत आबादी की आजिविका ग्रामीण उत्पादों पर टिकी रही है। यह कटु सत्य है कि जिस गांव के पास जितनी अधिक कृषि भूमि है, दस्तकार हैं, उत्पादक हैं, नदी और जंगल हों, वह गांव सबसे बड़ा धनवान यानी अमीरों का गांव माना जाता था। समाज, परिवार के लोगों का ध्यान  खेत – खलिहान, पशु धन के साथ- साथ वह व्यवसाय जो अधिक से अधिक मुनाफा देने में कारगर सिद्ध हो,उस पर रहता था। गांव की हर व्यवस्था एक विचित्र, अद्भुद व्यवस्था थी। उसे हर व्यक्ति पसंद करता था, समाज भी अपनाता था और आपस में मिल बैठकर नियम कानून बनाये जाते थे, उसे लागू करते थे। यही नहीं उसे स्वयं अपनाते भी थे। प्राकृतिक संसाधनों (जल, जंगल, जमीन), वनस्पतियों, वन्य-जीवों, पशु- पक्षियों के संरक्षण में अपना सहयोग समाज के कानून में ही निहित रहा है। आपसी लेन-देन का 80 प्रतिशत तक वस्तुओं, पशु धन,अनाज, घी, मानव श्रम के बदौलत होता था। प्रत्येक नागरिक की समस्याओं का समाधान भी ग्राम स्तर पर किया जाता था। कोई भूखा नहीं सोता था। प्रत्येक व्यवसाय लाभ कारी था, जिसे प्रत्येक नागरिक अपनाने को तैयार था। वह जंगलों को संरक्षण देते, नदियों को पवित्र बनाए रखतें और वन्य जीवों से प्रेम रखते थे। सच कहा जाये तो वह थी हमारी “ग्रामीण सामाजिक व्यवस्था”। इस व्यवस्था में ही  भारत “सोने की चिड़िया” था।
         ग्रामीण व्यवस्था समाज और समाज के लोगों द्वारा ही बनाई, तैयार की गयी थी। यह समाज सम्मत सामाजिक व्यवस्था  1000 बर्ष पूर्व कायम रही, जिसमें व्यक्ति की इच्छा पर निर्भर था कि वह क्या व्यवसाय करना चाहता था। इस समय तक सभी संस्कृतियों का जन्म नदियों के किनारे हुआ और सबसे अधिक महत्वपूर्ण बात यह रही कि मानव प्रकृति की उपासना करता था।
        दरअसल सामाजिक व्यवस्थाओं में बदलाव समाज कहें या समाज के वर्ग विशेष द्वारा लाना तय हुआ जो सन् 1250 के आते-आते पूर्ण रुप से जातिगत बना दिया गया। कुम्भार, लुहार,सुनार, दर्जी, मोची, खातीं, बनिए, किसान, ब्राह्मण आदि सभी जाति के हिसाब से अपने व्यवसाय को परम्परागत रूप से अपनाने को मजबूर हुए। नतीजन वर्ग -भेद बड़े। इतना सब कुछ होते हुए भी सभी लोग अपना जीवन खुशियों के साथ जीते थे। लेकिन खासियत यह रही कि इस दौर में बढ़ती आपसी दूरियों, जात-पांत, ऊंच-नीच ने सभी नजदीकियों को मिटा दिया। इसके बावजूद भी  “ग्राम स्वराज्य” था, गांव के लोगों की सभी आवश्यक वस्तुएं गांव में ही बनाई, पैदा की जातीं थीं। प्रत्येक ग्रामीण अपनी वस्तु बेचकर दूसरे से आवश्यक वस्तुएं प्राप्त कर लेता था। गांव की सरकार होती थी, वह सभी आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए नियम – कानून लागू करती, जंगलों, जंगली जानवरों को परममित्र माना जाता था। लेकिन सन् 1650 के आते-आते बाजार व्यवस्था ने अपने पांव मजबूत कर लिये, गांव की बनी वस्तु बाजार में बिकने लगीं। वस्तु की कीमत निर्धारित हुईं और समाज व्यवस्थाओं में बिखराव पैदा होने लगे। नतीजा यह हुआ कि दिनोंदिन आपसी परेशानियां बढ़ने लगीं, दलालों का बोलबाला तेज़ होने लगा। सामाजिक नियमों में बदलाव आया, जंगलों का कटान तथा जानवरों के शिकार में तेजी से बढो़तरी होने लगी। टैक्स (लगान) का प्रचलन तेजी से बढ़ा, और तो और व्यक्ति का शोषण भी तेजी से प्रारम्भ होने लगा। धीरे-धीरे व्यक्ति ने अपने व्यवसाय को अलाभकर समझ  उससे दूरियां बनाना प्रारंभ कर दिया। आज हालत यह है कि देश में आजादी से लेकर आज तक 90 प्रतिशत लोग अपने पुश्तैनी रोजगार को छोड़कर नौकर, मजदूर, दलाली जैसे व्यवसाय अपनाने लगे और वे सभी उत्पादन फैक्ट्रियों में होने लगे जो गांव में पैदा होते थे। परिणाम स्वरूप 45 प्रतिशत लोग बेरोजगारी, 35 प्रतिशत मौसमी बेरोजगारी से हमेशा पीड़ित रहने लगे। हकीकत में आज देश में 08 प्रतिशत नागरिक ही अपने व्यवसाय से संतुष्ट हैं। शेष तो भगवान भरोसे हैं।
         सच कहा जाये तो बाजारू व्यवस्थाओं के मकड़जाल में आज प्रत्येक नागरिक शोषण का शिकार हो रहा है। व्यवसाय छीने जा रहे हैं। व्यक्ति बढ़ती महंगाई से परेशान होकर आत्म हत्या करने को मजबूर है। प्राकृतिक संसाधनों का दोहन बढ़ गया है। इसे यदि यूं कहैं कि हम प्राकृतिक संसाधनों का बेतहाशा दोहन कर रहे हैं। नदियां जहर उगलने लगी हैं। जंगल साफ़ हो गये हैं, जैव विविधता का संकट पैदा हो गया है। जानवरों की अनेकों प्रजातियां लुप्त हो गईं है और सैकडो़ं की तादाद में दिन ब दिन विलुप्ति की ओर बढ़ रही हैं। आज स्थिति बेहद चिंताजनक है। बाजार की व्यवस्था दिनोंदिन भयावाह होती जा रही है। दुख है कि इसकी ओर किसी का ध्यान ही नहीं है।
        मेरे वर्षों के अपने सामाजिक अध्ययन से निष्कर्ष निकला है कि इस बाजारू व्यवस्था में 85 प्रतिशत दस्तकार बेरोजगार हुए हैं, 35 प्रतिशत किसान मजदूर बेघर हो गए हैं। प्रत्येक उत्पादन बाजार में बिकने लगा है और दस्तकारों की कला की पहचान लुप्त होती जा रही है। उत्पाद पर बढ़ते करों से देश का प्रत्येक नागरिक तंग आ चुका है। अर्थव्यवस्था चरमरा गई है और भारत अपनी कला व समृद्धि की पहचान खोने के कगार पर पहुंच चुका है। देश व देश के प्रत्येक नागरिक पर विदेशी कर्ज का बोझ आये दिन बढ़ने लगा है। बढ़ती महंगाई, घटते उत्पादन जैसी समस्याओं को लेकर आम व्यक्ति की आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं हो पा रही है। नदियां मर रहीं हैं । जंगल खत्म हो रहे हैं। वन्यजीवों  के लिए खतरा बढ़ गया है। चारो ओर समस्याएं ही समस्याएं दिखाई देने लगी हैं। ऐसी परिस्थितियों में समाज, राज्य और देश के नीति निर्माताओं, शासकों को चाहिए कि वे अपने “विश्व गुरु भारत”, “सोने की चिड़िया भारत”, “गांवों का देश भारत” की सामाजिक व्यवस्थाओं का अध्ययन कर उन व्यवस्थाओं को वर्तमान व्यवस्थाओं के साथ समायोजित करें। नीतियों में बदलाव करें और शिक्षा- व्यवस्था में नवाचार के साथ उन सामाजिक मान्यताओं को अपनाएं  जिनसे भारत महान बना, प्रत्येक नागरिक सक्षम बना और प्राकृतिक संसाधनों को संरक्षण मिला हों। इससे आगामी भविष्य में देश का प्रत्येक नागरिक आत्म निर्भर बने, आत्म सम्मान के साथ जीवन जी सके और सर्वत्र हरसंभव खुशहाली हो। अतः समय की मांग है कि वर्तमान व्यवस्थाओं में बदलाव लाकर उनमें पुरातन सामाजिक व्यवस्थाओं से तालमेल बिठाना आवश्यक होगा, जिससे प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण, जल जंगल, जानवरों के प्रति सुरक्षा का भाव आम व्यक्ति में पैदा हो सके। यही विकास का आधार हो सकता है।
(लेखक  राम भरोस मीणा जाने माने पर्यावरण कार्यकर्ता और समाज विज्ञानी हैं।)
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