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“हेल्थ, वेल्थ एंड हेप्पीनेस”

जैसा खाओगे अन्न वैसा बनेगा आपका मन, जैसा पियोगे पानी वैसी बनेगी आपकी वाणी और जैसा होगा आपका संग वैसा चढ़ेगा आप पर उसका रंग।

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मनुष्य जीवन को सुखद बनाने के लिए तीन चीजों की आवश्यकता होती है। हेल्थ (स्वास्थ्य), वेल्थ (धन-संपत्ति) और हेप्पीनेस ( खुशी ) । उपरोक्त तीनों बातों का आपस में एक-दूसरे से बहुत ही गहरा सम्बन्ध है। अच्छा स्वास्थ्य हमें उचित शारीरिक व्यायाम, संतुलित पौष्टिक आहार एवं पर्याप्त नींद लेने से प्राप्त होता है। धन-संपत्ति बनाये रखने के लिए व्यक्ति का ज्ञानवान और कर्मठ होना आवश्यक है। कई बार पैतृक संपत्ति के रूप में भी हमें धन-संपत्ति प्राप्त होती है, परंतु कहावत है कि “नॉलेज इज सोर्स ऑफ इनकम”। जो ज्ञान से दिनों दिन बढ़ती चली जाती है। यदि मनुष्य में ज्ञान वा समझ का अभाव है तो अल्पबुद्धि और कुसंस्कारों के कारण धन-धान्य से भरे मटके भी खाली हो जाते है। वही खुशी को प्रायः अच्छे स्वास्थ्य और धन-संपत्ति से जोड़कर देखा जाता है। मनुष्य समझते है कि जो निरोगी है व जिसके पास जितना धन एवं पद प्रतिष्ठा है तो वह उतना ज्यादा सुखी और खुशनुमा होगा। किंतु इसके बजाय देखने में यही आता है कि सब कुछ होते हुए भी मानव प्रायः दुखी एवं तनावग्रस्त स्थिति में ही ज्यादा समय व्यतीत कर रहा है। खुशी तो उसके जीवन से मानो कही गुम ही हो गयी है। परिणामस्वरूप वह अल्पकाल की खुशी पाने के लिए तरह-तरह के उपाय करता है और खुशी ढूंढने के लिए यहां-वहां मारा-मारा फिरता रहता है। आओ हम इन तीनों को पाने का वास्तविक रहस्य समझने की कोशिश करते है।
हैल्थ (स्वास्थ्य) आज संसार में शायद ही कोई मनुष्य सम्पूर्ण रीति स्वस्थ हो। प्रत्येक व्यक्ति किसी न किसी रूप में थोड़ा बहुत अस्वस्थ होता ही है, अथवा उसके शरीर में कोई न कोई प्रकार की कमी जरूर है। प्रायः स्वास्थय के लिए हम केवल शरीर की ओर ही ध्यान देते है। एक मनुष्य के लिए चार प्रकार से स्वस्थ होना आवश्यक है। जैसे शारीरिक स्वास्थ्य, मानसिक स्वास्थ्य, सामाजिक स्वास्थ्य और आध्यात्मिक स्वास्थ्य। आज मेडिकल साइंस भी मानती है कि मनुष्य की 80-90 प्रतिशत बीमारी का कारण उसका मन है। जब हम मन से व्यर्थ एवं नकारात्मक चिंतन करते है तो संकुचित सोच के कारण हमारी पीयूष ग्रंथि एवं तांत्रिक तंत्र भी संकुचित होता है जिसके प्रभाव के कारण  ग्रंथि से निकलने वाले हार्मोन्स का स्राव मस्तिष्क की कोशिकाओं में भी संकुचित होकर प्रवाहित होता है परिणाम स्वरूप शरीर के अनेक अंगों पर उसका कुप्रभाव  पड़ता है जिससे अनेक बीमारियां जन्म लेती है। जबकि समर्थ, सकारात्मक और श्रेष्ठ चिंतन से पीयूष ग्रंथि से निकलने वाला हार्मोंस  का स्राव मस्तिष्क की कोशिकाओं में आराम से बहता है और मस्तिष्क की कोशिकाओं का संकुचन कम होता उनकी सभी ब्लॉकेज खुलने लगती है परिणाम स्वरूप शरीर का स्वास्थ्य अच्छा होने लगता है। मनुष्य का चेहरा खिलने लगता है और वह स्वयं को हल्का अनुभव करता है। मन को स्वस्थ रखने के लिए अन्न एवं मनुष्य के संग का भी बहुत महत्व है। इसलिए कहा जाता है कि जैसा खाओगे अन्न वैसा बनेगा आपका मन, जैसा पियोगे पानी वैसी बनेगी आपकी वाणी और जैसा होगा आपका संग वैसा चढ़ेगा आप पर उसका रंग। आध्यात्मिकता से भी  सकारात्मक एवं श्रेष्ठ चिंतन बढ़ता है। जिससे मनोबल शक्ति बढ़ती है। व्यक्ति का व्यवहार विनम्र एवं मधुर होने लगता है। समाज में उसके  प्रेमपूर्ण सम्बन्ध बनने लगते है। वह सबको प्रिय लगने लगता है।
वेल्थ (सुख-समृद्धि) प्रायः हम सांसारिक चीजों वा अनेक संसाधनों में अपने लिए सुख ढूंढते आये है। अभी तक हम यही जानते और मानते आये की धन से ही सब कुछ प्राप्त किया जा सकता है। हम धन से सुख-शांति एवं खुशी को अल्पकाल के लिए तो प्राप्त कर सकते है, किंतु सदा के लिए नही। मनुष्य की ओर पाने की इच्छा उसे ऐसा सदा काल की प्राप्ति करने नही देती। वह दिन-रात भागता-दौड़ता ही रहता है। इसलिये परमात्मा ने बताया है कि सन्तुष्टता मनुष्य आत्मा का सबसे बड़ा खजाना है। जहाँ सन्तुष्टता है, वहाँ स्थूल प्राप्तियों की कमी होते हुए भी भरपूरता एवं बेहद सुख का अनुभव होता है, और जहाँ सन्तुष्टता नहीं होती वहाँ सब कुछ प्राप्त होते हुए भी जैसे खालीपन ही अनुभव होता है। वास्तव में सच्चा सुख भौतिक संसाधनों में नहीं बल्कि अपने आत्मिक स्वरुप में टिकने से प्राप्त होता है। जब मनुष्य वाह्यमुखता से हटकर अन्तर्जगत की यात्रा करता है तो वह अतीन्द्रिय सुख को पाता है। उसे जीवन में सत्य ज्ञान की प्राप्ति होती है, और वह ज्ञानयुक्त श्रेष्ठ कर्म करके अपने वर्तमान को तो सुखद बनाता ही है, साथ ही भविष्य के लिए भी अपने सुखद भाग्य का निर्माण करता है।
हैप्पीनेस (ख़ुशी) कहावत है की एक रानी का हार कही गुम हो गया था और वह उसे बाहर ही ढूंढती रही परन्तु अंत में उसे पता चलता है कि हार तो उसके गले में ही पड़ा था।  उसी प्रकार ख़ुशी आत्मा का निजी गुण है जो मनुष्य आत्मा के अंदर निहित सात मूल गुण (पवित्रता, सुख, शांति, आनंद, प्रेम, ज्ञान और शक्ति) के कारण आती है। मनुष्य ख़ुशी को इधर-उधर ढूंढता रहता है, परन्तु मनुष्य की बुद्धि पर अज्ञान का पर्दा वा धूल पड़ने के कारण वह अपनी ख़ुशी को अनुभव नहीं कर पाता। आत्मा पर पड़ी यह धूल स्वचिंतन, परमात्म चिंतन एवं निरंतर राजयोग अभ्यास से ही हटती है। मनुष्यात्मा को स्वयं की वास्तविकता, परमात्म अनुभूति, कर्मो की गुह्यता और इस सृष्टि नाटक की गुह्यता का ज्ञान प्राप्त होता है। राजयोग के निरंतर अभ्यास से हमारे मन से व्यर्थ समाप्त हो जाता है और मन शक्तिशाली बन जाता है। बुद्धि निर्मल हो जाती है। हमें परमात्म शक्तियों का अनुभव होता है और इस सुखद मन से हमारा शरीर भी निरोगी बनता है। मनुष्य के अंदर से चहुमुखी विकास होता है। वह गुणों से भरपूर हो जाता है, जिससे वह सर्व का प्रिय बन जाता है। सर्व की दुआओं से मनुष्य की  ख़ुशी भी निरंतर बढ़ती जाती। जीवन में न केवल ख़ुशी आती परन्तु उसका पूरा जीवन ही आनंदमय हो जाता है। तो इस प्रकार राजयोग का अभ्यास हमें हेल्थ, वेल्थ और हेप्पीनेस के साथ-साथ होलीनेस भी बना देता है।
हरि पाल सिंह
(लेखक दिल्ली मेट्रो DMRC में कार्यरत हैं।)
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