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400 सौ साल पुरानी प्रथा है “लोहड़ी”

लोहड़ी दीयां लख-लख बधाईयां

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पंजाबियों का सबसे बड़ा त्योहार लोहड़ी है। इसे फसलों का त्योहार भी कहा जाता है। यह हर साल 13 जनवरी को ही खूब धूमधाम से मनाया जाता है। यह पर्व मकर संक्रांति से ठीक एक दिन पहले ही आता है। जिस तरह मकर संक्रान्ति के बारे में कहा जाता है कि उस दिन से तिल के समान दिन भी धीरे-धीरे बड़ा होने लगता है और सर्दी भी कम होने लगती है। उसी तरह लोहड़ी के बारे में भी कहा जाता है कि लोहड़ी की रात साल की अंतिम सबसे लंबी रात होती है। इसके बाद दिन बड़ा होने लगता है और ठंड़ भी कम होने लगती है। लोहड़ी का त्योहार पंजाब, हरियाणा के साथ-साथ दिल्ली, हिमाचल और जम्मू कश्मीर में भी बहुत ही उल्लास व उमंग के साथ मनाया जाता है। इस पावन त्योहार के बारे में पंजाबी पाॅप गायक दलेर मेंहदी से जब संध्या रानी की बातचीत हुई तो बहुत ही रोचक बातें निकल कर सामने आई। आइए जानते हैं उन्हीं की बातें उन्हीं की जुबानी:
सबसे पहले सभी भाई-बहनों को लोहड़ी की बधाईयां। यह हमारी 400 सौ साल की पुरानी प्रथा चली आ रही है। जो हमारी संस्कृति की पहचान है। जिसे हम बड़े ही खुशी के साथ आज भी मनाते हैं। इसके बारे में एक कथा प्रचलित है कि मुगल बादशाह अकबर के जमाने में सुन्दरी मुंदरी दो बहनें थीं। जोकि हिंदू थीं। उस समय पंजाब का जो वज़ीर था। वह मुस्लिम था और वह उन दोनों लड़कियों से निकाह करना चाहता था। जब उन लड़कियों के माता-पिता को इसके बारे में पता चला तो उन्होंने इन्कार कर दिया। वज़ीर ने इस बात से खफा होकर उन लड़कियों को कारावास में डाल दिया। उस समय एक दुल्ला नाम का आदमी रहता था। जब उसको इसके बारे में पता चला तो उसने बच्चियों को बचाने के लिए युद्ध किया और बच्चियों को कारावास से निकाल कर उनके मां-बाप को सौंप दिया। इस बात की शिकायत जब बादशाह अकबर से की गई तो उसे पकड़ने के लिए फौज भेजी गई और उसे पकड़ लिया गया। उसकी वीर गाथा के उपलक्ष्य में लोहड़ी की प्रथा शुरू की गई थी। और इसीलिए लोहड़ी पर ये गीत गाया जाता है “सुन्दर मुंदरिये हो, तेरा कोण विचारा ,दुल्ला भटी वाला”  इसके अलावा जब घर में बच्चे पैदा होते है या घर में बेटे की शादी होती है, उसके बाद आने वाली पहली लोहड़ी खूब धूमधाम से मनाई जाती है। इस त्योहार के कई दिन पहले से ही बच्चे घर-घर जाकर लोहड़ी मांगते थे। लेकिन शहरों में यह आजकल बहुत कम देखने को मिलता है। जब मैं छोटा था तो छह किलोमीटर पैदल चलकर दूसरे गांव में लोहड़ी मांगने जाया करता था। मूंगफली और रेवड़ियां खूब मिलती थी और हम बच्चे थैलियां भर-भरकर लाते थे। बहुत ही मजा आता था। जब कोई दस-बीस पैसा दे देता था तो हमलोग बहुत खुश हो जाते, और समझते थे कि यह तो बहुत अमीर आदमी है। उसकी हम बच्चे बहुत जय -जयकार करते थे। सभी बच्चों के पास चार-पांच रूपया हो जाता था।और जिस घर से हमें कुछ नहीं मिलता था उसके लिए हम बोलते थे कि “हुक्का बई हुक्का ए घर भुक्खा ” यानि ये घर वाले कंजूस है। आज भी जब लोहड़ी आती है तो बचपन के दिन याद आते हैं। मैं हर साल लोहड़ी मनाता हूँ। उस दिन हमारे घर में मीठा चावल जरूर बनता है और हमलोग उपले जलाते हैं और उसमें देसी घी डालते हैं। मुझे लोहड़ी का त्योहार बहुत अच्छा लगता है। मक्के के दाने खाने में अच्छे लगते हैं। जिसे पाॅप काॅर्न कहा जाता है। प्रकृति में चारों तरफ बहार आ जाती है। पेड़-पोैधे चमक जाते हैं, क्योंकि वसंत का आगमन हो जाता है।
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