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हमें आजादी स्वयं लेनी पड़ती है………
"मर्द कभी औरत की बराबरी नहीं कर सकता है। महिलायें मल्टीटास्कर होती है"
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“महिला दिवस हरदिन है” इसीको ध्यान में रखते हुए www.dainikindia24X7.com ने एक सप्ताह का आयोजन किया है. जिसमें हर तबके की महिलाओं से हम हर दिन रूबरू होते हैं। जिन्होंने अपने कार्यक्षेत्र में एक मुकाम हासिल किया है। इसी कड़ी में आज हम मिलते हैं प्रसिद्ध क्लासिकल सिंगर डा. नुपूर सिंह से संध्या रानी की खास बातचीत द्वारा…………..
दिल्ली विष्वविद्यालय की प्रोफेसर डा नुपूर सिंह एक जानी-मानी क्लासिकल सिंगर हैं। वे हर तरह के संगीत को बहुत ही अच्छे से अपनी सुरीली आवाज में गाती हैं। घर परिवार की जिम्मेदारियों को संभालते हुए अपने काम को सही अंजाम देते हुए वे आज अनेक महिलाओं के लिए प्रेरणा की सोत्र हैं। आइए जानते हैं उन्हीं की कहानी उन्हीं की जुबानी………..
मैं बिहार एक छोटे से शहर मुजफ्फरपुर से हूँ। मेरे पिता इंजीनियरिंग काॅलेज में प्रोफेसर थे और मां काॅलेज की प्रिंसिपल थीं। उस समय हमारे समाज में गायन और नृत्य को बहुत ही गलत तरीके से देखा जाता था। लेकिन मेरे माता-पिता ने इसकी परवाह नहीं की और वे मुझे संगीत का तालीम ग्वालियर घराने से दिलवाने लगे। मैं पांच साल की उम्र से संगीत सीख रही हूँ। पढ़ाई में भी मैं शुरू से अव्वल रही हूं और संगीत में भी मैं अक्सर प्राइज जीतती थी। मैं साइंस की स्टूडेंट रही हूँ।
दिल्ली आने के बाद मैंने संगीत से एम ए करने के बाद कम्पनी सेक्रेटरी का भी कोर्स किया था। लेकिन मेरा लक्ष्य संगीत को लेकर ही आगे चलने का था। हमारे परिवार में इसके लिए सभी ने बहुत सपोर्ट किया। तभी मैं आज यहां तक पहुंची हूँ। शादी के बाद भी पति और परिवार का बहुत सहयोग मिला है। कभी कोई सवाल नहीं उठा। बड़ों के आशीर्वाद से कोई भी काम करने में सफलता जरूर मिलती है।
मैं अपने गुरू पंड़ित राजन-साजन मिश्रा से आज भी सीखती हूँ। मेरा बेस तो क्लासिकल ही है, पर मैं सभी तरह के गाने गाती हूँ। आए दिन मेरा प्रोग्राम होते रहता है। बच्चे होने के बाद महिलाओं के साथ थोड़ी परेशानी जरूर होती है। लेकिन जब हम समय को सही तरीके से मैनेज कर लेते हैं तो फिर सब ठीक हो जाता है। हालांकि एक औरत के लिए घर बाहर की जिम्मेेदारियों को निभाना बहुत ही टफ टास्क होती है। हमारी बेटी के जन्म के बाद एक समय ऐसा आया जब मुझे लगा कि अब मेरा केरियर चौपट हो जाएगा। फिर सोचने के बाद ये समझ आया कि ये भी तो मेरी ही जिम्मेदारी है। मुझे ही ये काम करना है। जब हम मानसिक रूप से तैयार हो जाते हैं तब सब काम आसान हो जाता है। अपनी बेटी को उसके पापा के साथ पार्क भेज देती थी और रियाज कर लेती थी। इसके साथ जब दिल्ली से बाहर प्रोग्राम होता था तो फ्रिज में कुछ खाना बनाकर रख देती थी ताकि बच्चों को कोई दिक्कत न हो। हालांकि मेरे पति बहुत ही अच्छे से बच्चों को संभाल लेते थे। जब दूसरा बच्चा होने वाला था तो हाॅस्पीटल जाने से दो घंटा पहले तक तीन तकिया लगाकर थेसिस लिखती रही, क्योंकि इस कारण मुझे लिखने में असुविधा होती थी। बच्चा सीजेरियन हुआ था। फिर भी हाॅस्पीटल से आने के बाद घर में भी काम करना पड़ता था। जबकि काम करने के लिए मेड भी थी। अब तो आदत पड़ गई है। इसलिए सब काम हो जाता है। इसके लिए सिर्फ टाइम को मैनेमेंट करना पड़ता है, क्योंकि अपने काम के साथ-साथ सब काम जरूरी है।
पहले से अब महिलाओं को बहुत सुविधा मिल गई है। वे अपनी मर्जी से अपना करियर चुन सकती हैं। जबकि पहले ऐसा नहीं था। लोग अपनी बेटियों को पढ़ाते भी इसलिए थे कि अच्छी घर में शादी नहीं होगी। अब हमारे समाज में इस तरह की बात ही नहीं है। हर महिला को अपने पैरों पर खड़ा होना बेहद जरूरी है। औरतों के बारे में कहा जाता है कि “औरतों को बराबरी का दर्जा देना चाहिए। जबकि यह सोच ही गलत है। मर्द कभी औरत की बराबरी नहीं कर सकता है। महिलायें मल्टीटास्कर होती हैं।” एक मां ही बेटा और बेटी में अंतर करती है। यहां वह भी गलत नहीं हैं, क्योंकि उनकी मानसिकता उस तरह की परिपक्व नहीं होती है। इसके लिए हमारा परिवार और समाज ही जिम्मेदार होता है।