मानवता के मसीहा…..
आनंद और दया के महासागर-गुरूदेव राष्ट्रसंत श्री आनंदऋषिजी महाराज साहब

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भारतवर्ष महाराष्ट्र में अहमदनगर जिले की अपनी एक अलग सी पहचान है। वह इसलिये है क्यूंकि यह एक संतों की भूमि है। यहां साई बाबा, मेहर बाबा, संत ज्ञानेश्वर महाराज जैसे महान संतों ने अपने पावन चरणों से स्पर्श कर इसे संपन्न बनाया है। इसी श्रृंखला से जुड़ा एक और प्रसिद्ध नाम है राष्ट्रसंत श्री आनंदऋषिजी महाराज साहेब का। वैसे तो आनंदऋषिजी महाराज साहब जैनों के आचार्य हैं पर इन्हें सभी जाति के लोग मानते हैं और पूजते भी हैं क्यूंकि संपूर्ण मानवजाति का कल्याण ही उनके जीवन का सार था। वे कहते थे मनुष्य जाति एक है। उनका सपना था मानव जाति की वेदना, पीड़ा, दुख-दर्द को मिटाना।
यह वर्ष 2021 उनका 29वां स्मृति दिवस है।
ऐसे दयामूर्ति, प्रेम के महासागर युग-पुरूष का जन्म अहमदनगर जिले में चिंचोड़ी शिराल की पावन धरा पर 27 जुलाई 1900 में हुआ। बड़े ही प्यार से उस नन्हे बालक का नाम नेमीकुमार रखा गया। माता हुलसाबाई और पिता देवीचंद गुगलेजी इस विलक्षण बालक को पाकर बेहद प्रसन्न थे क्यूंकि वे बचपन से ही अनेक शुभ लक्षणों से अंकित थे। संस्कारी माता अपने पुत्र को हर रोज प्रार्थना, प्रभु स्मरण करवाती थी। महापुरूषों की जीवन गाथा सुनाती थी। बचपन से ही धर्मपरायण माता के संस्कारों का इस बालक के मन पर गहरा असर हुआ था। कुछ समय बाद ही हुलसाबाई को युवाअवस्था में पति-वियोग का दुख सहना पड़ा। लेकिन अपने पति के जाने के बाद भी हुलसादेवी ने नेमिकुमार का पालन-पोषण बहुत ही अच्छी तरह किया। एक बार उनके गांव चिंचोडी में गुरूरत्नऋिषीजी मारसाहब का आगमन हुआ। माता ने उन्हें धर्म-ज्ञान अर्जित करने के लिये उनके पास भेजा। तभी उन्होंने अपनी रत्नपारखी नज़रों से इस बालक का भविष्य पढ़ लिया। और उनकी तेज़ बुद्धि और आकंलन शक्ति से प्रभावित हो कर उन्होंने हुलसादेवी से उनका पुत्र मांग लिया। तब माता ने गुरूदेव का सम्मान करते हुए उन्हें दीक्षा की अनुमति दे दी।तब 1913 में नेमिकुमार मार्गशीर्ष शुक्ल नवमी के दिन मीरी नाम के गांव में आनंदऋषि के नाम से दीक्षित हुए और अपने पूज्य गुरूदेव के साथ विचरण करने लगे। रत्नऋिषी जी मारसाहब ने इस हीरे को खूब तराशा। उन्होंने ऋषी आनंद को ज्ञान का उजला सूरज बनाया जो मानवजाति को अपने ज्ञान और प्रेम के प्रकाश से सराबोर कर सके। आनदंऋषि जी ने सारे शास्त्र, आगम, ज्ञान, व्याकरण तथा प्राकृत, संस्कृत के साथ धर्मग्रंथों का भी अभ्यास किया। वे एक मधुर आवाज़ के भी धनी थे। अपनी मीठी वाणी से धर्म-सभा को संबोधित करते थे। विदर्भ में विचरण करते हुए 1927 में हिंगणघाट के नज़दीक अलीपुर गांव में गुरूरत्नऋषिजी मारसाहब का देवलोक गमन हो गया। इस आघात को आनंदऋषिजी ने बड़ी धैर्यता के साथ संभाला और गुरू के अभाव में भी वे उनकी शिक्षाओं को संजोए हुए निरंतर आगे बढ़ते रहे। 1955 में श्रमणसंघ की स्थापना हुई और प्रथम आचार्य श्री आत्मारामजी महाराज साहब और आनंदऋषिजी महाराज साहब को प्रधान बनाया गया। 30 जनवरी 1962 में श्री आत्मारामजी महाराज साहब का देवलोक गमन हो गया और 1964 में ऋषि आनंद श्रमण संघ में द्वितीय आचार्य बने। श्रमण संघ को गठित करने के लिये आचार्य पद का दो बार त्याग किया लेकिन फिर भी उन्हें ही आचार्य माना गया। राजस्थान, दिल्ली, पंजाब, उत्तरप्रदेश में विहार करते हुए 1974 में मुम्बई पधारे। 1975 में अमृत महोत्सव में उन्हें पूना शहर में राष्ट्रसंत की उपाधि से नवाज़ा गया। मानव जाति में अज्ञान के अंधेरे को दूर करने के लिए वे पूरे भारत में घूमे। आपकी सभा में सभी गुरूओं का आगमन भी होता था और उनके साथ ज्ञान चर्चा भी होती थी। वे सभी धर्माें का सम्मान करते थे। कभी किसी का दिल अपने शब्दों द्वारा भी नहीं दुखाते थे। उन्होंने तिलोकरत्न धार्मिक परीक्षा बोर्ड का निर्माण करवाया। अध्ययन को वे विशेष महत्व देते थे। उन्होंने अनेक शहरों तथा गावों में धार्मिक पाठशाला, ग्रंथालय खुलवाये जोकि अभी भी निरंतर कार्यरत हैं। उन्हें उर्दू, हिंदी, मराठी, गुजराती, अंग्रेजी जैसी कई भाषाएं का भी बखूबी ज्ञान था। साधू-साध्वियों के अध्ययन के लिये भी उन्होंने बहुत प्रेरणा दी और ऐसे शिष्य बनाये जो अनेकों और शिष्य बना पायें। विनय भाव और दया भाव उनके व्यक्तित्व की सर्वाधिक प्रशंसनीय विशेषताऐं थी। जिनके आधार पर उन्होंने हमेशा संप्रदायवाद को मिटाने की कोशिश की।
उन्होंने श्रमण संध को ऊंचाइयों के एक नये आयाम तक पहुंचा दिया। समस्या चाहे कोई भी हो, निवारण शांति से ही होता था। वे वास्तव में शांति के असीम सागर थे। मानव कल्याण के लिये सदैव तत्पर रहते थे। इसीलिये उन्हें मानवता का मसीहा भी कहा गया। उन्होंने आनंद फाउंडेशन की नींव रखी जिससे हज़ारों ज़रूरतमंदों को सहयोग मिलता है। श्रावकों की विनती और उनके अस्वास्थ्य के कारण उन्हें अहमदनगर में ही रूकना पड़ा और बस फिर क्या था उनके श्रृद्धालुओं के लिये तो मानों अहमदनगर एक तीर्थ-स्थान बन गया। पूरे भारतवर्ष से भक्त उनके दर्शन और प्रवचन का लाभ लेने वहां आने लगे। लोग उनके दर्शन मात्र से ही आनंद विभोर हो जाते थे। 28 मार्च 1992 के दिन दोपहर 4 बजे स्वाध्याय करते-करते वे परमात्मा में लीन हो गये। संघठन की वीणा बजाने वाले, धर्म की ध्वजा भारत के हर कोने में फहराने वाले आनंदऋषिजी जनमानस के मन-मंदिर में आज भी विराजमान हैं। अहमदनगर में धार्मिक परीक्षा बोर्ड पर उनकी समाधि ’’आनंद धाम के नाम से विख्यात है। हजारों श्रृद्धालु यहां आते हैं और आज भी उनकी उर्जा को महसूस करते हैं और आनंद ही आनंद पाते हैं। ऐेसे आनंदमूर्ति, शांतिमूर्ति महान आत्मा को हम उनके 29वें पुण्य स्मरण पर हृदय की अनंत गहराइयों से कोटि-कोटि वंदन करते हैं।
प्रस्तुति- अंजू सागर भंडारी
जैन सोशल फेडरेशन द्वारा प्रकाशित से साभार