“बेटी को शिक्षा के साथ-साथ मेहनत का संस्कार भी अवश्य दें माता-पिता”
एक औरत की असली ताकत है उसकी मेहनत जिसके सामने भगवान भी हार मान जाते हैं। हार कभी न मानें परिस्थिती चाहे कैसी भी हो....
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अनेकों विकट परिस्थितियों के बावजूद भी जिन्होंने कभी हार नहीं मानी और अपनी मेहनत के बल पर समाज में नारी शक्ति की मिसाल कायम की। हालांकि बचपन से ही आर्थिक तंगी का सामना करना पड़ा लेकिन हर विकट परिस्थिति का डट कर मुकाबला किया। आज लाखों लोगों की प्रेरणा बन चुकी शोभा अमृतलाल भंडारी के हाथों से बने पौष्टिक खाखरे का स्वाद बन चुका है उनकी पहचान। मेहनत को ही अपने जीवन का आधार मानने वाली शोभा अमृतलाल भंडारी से उनके अनछुए पहलुओं पर खास बातचीत की अंजू सागर भण्डारी ने……
मेरा जन्म 1963 में वडगाव मावळ (पुणे) में एक अति साधारण परिवार में हुआ। जहां की आर्थिक परिस्थिति बहुत खराब थी। मेरी मां (चंचलबाई बलदोटा) पापड़ और बड़ियाँ बनाती थी, मिर्ची कूटती थी। उनके हाथ के नीचे काम करते-करते ही बचपन कब बीता पता ही नहीं चला। मेरी मां ही मेरी प्रेरणा बनी। वह बहुत अधिक मेहनत करती थी। जिसे देखकर मैं हमेशा सीखती थी।
1980 में शादी हुई। ससुराल में तो मायके से भी आर्थिक स्थिती अधिक खराब थी। लेकिन मैंने हिम्मत नहीं हारी और उसे अपनी तकदीर का फैसला मानकर हालात से समझौता कर लिया।
मेरे ससुरजी (फुलचंदजी दगडूरामजी भंडारी) स्वतंत्रता सैनानी थे तो उनकी पेंशन के भरोसे घर चल रहा था। पति के काम का कोई भरोसा नहीं रहता था। आज है, कल नहीं है ऐसा ही चलता था। सास-ससुर के गुज़र जाने के बाद पेंशन बंद हो गई। तब मेरे 3 छोटे बच्चे थे। दो लड़कियां और एक लड़का। उस वक्त आर्थिक तंगी का बहुत सामना करना पड़ा। उस समय एक पुल बनाने का काम चल रहा था जहां मेरे पति 40 रूपये रोज़ पर काम करते थे। क्या करूं-क्या करूं सोचते-सोचते दिन गुजरता था। तब हम दोनों ने साइकल पर जाकर बेकरी आइटम बेचना शुरू किया। तब हम पिंपळगाव पिसा, अहमदनगर में रहते थे। पूरे गाॅंव में घर-घर घूमकर हम बेकरी आइटम बेचते थे। बहुत कड़ी मेहनत करते थे तब जाकर बड़ी मुश्किल से गुज़र-बसर होता था। एक समय तो ऐसा आया कि भूखे-मरने की नौबत आन पड़ी। तब 1999 में शिरूर शहर में रहने का फैसला किया। वहां मेरी ननंद (सुशीलाबाई खाबिया) और गांव वालों ने मेरी बहुत मदद की। मैंने वहां अपने घर के बर्तन बेचकर मैस चालू किया। वहां एक मेडिकल वाले भईया खाना खाने आते थे। उन्होंने मुझे बैंक कलेक्शन का काम करने की सलाह दी। मैं घर-घर जाकर पैसे इकट्ठे करके बैंक को देती थी तब बैंक द्वारा मुझे उसका 3 प्रतिशत कमिशन मिलता था। उसी दौरान जो काम मैंने मेरी मां से सीखा था उसकी याद आई और भगवान की कृपा से शिरूर के लोगों ने भी मेरी बहुत मदद की। लोगों का रेस्पोंस अच्छा मिलने लगा और खाखरा, पापड़ बनाने का मेरा काम चल पड़ा। उस समय मेरा बैंक का कलेक्शन भी लगभग 15000 आता था और खाखरे बनाने का काम भी साथ ही साथ चल रहा था। लेकिन मैंने उस दौरान न बारिश देखी न धूप, ठण्डी देखी न गर्मी। एक भी दिन काम से छुट्टी नहीं ली। इस प्रकार 2009 में मैंने अपना खुद का घर खरीद लिया। जहां एक ओर मैं नये घर की खुशियां मना रही थीवहीं दूसरी ओर विधाता मेरी एक और नई परीक्षा लेने की तैयारी में थे।
2010 में बैंक के संचालकों ने रूपये-पैसों का गबन कर लिया और अचानक सभी बैंक बंद हो गई और मुझपर मुसीबतों का पहाड़ टूट पड़ा। जिन लोगों के पैसे मेरे द्वारा बैंक में जमा थे वे सभी मुझसे पैसे मांगने लगे। तब भी मैंने हिम्मत नहीं हारी और अपनी किस्मत से लड़ाई जारी रखी। मैंने बैंक मेनेजर और संचालकों से झगड़े कर सबके पैसे वहां से निकलवा कर उन्हें लौटा दिये और वहां के लोगों के दिल जीत लिये। तब बैंक कलेक्शन का काम पूरी तरह बंद हो चुका था। अब मेरे सामने फिर से तकदीर ने मां की सिखाई हुई कला को सामने लाकर रख दिया। तब मैंने कुछ महिलाओं के साथ मिलकर मेरी सासुमां (सूरजबाई) के नाम से सूरज खाखरा का उत्पादन शुरू किया। मेरी सासुमां चाहती थी कि हम कुछ तो खास करें इसलिये मैंने उनकी इच्छा और प्रेरणा से उनके नाम से कार्य शुरू किया जिसका रेस्पोंस बहुत अच्छा मिलने लगा और काम में दिन दोगुनी रात चौगुनी तरक्की होने लगी। तब हम एक दिन में 10-15 किलो खाखरा बनाते थे जो अब बढ़कर 50-60 किलो हो गया है। हेंडमेड खाखरा की डिमांड बढ़ती गई और मेरी हिम्मत भी। 15-20 औरतों की मदद से माल बनवाती थी। आटा छानना, गूंदना सब खुद करती थी ताकि दो पैसों की बचत कर सकूं। माल की मार्केटिंग के लिये पति और बेटे की मदद लेती थी। 2016 में महिला बालकल्याण समिती द्वारा 8 मार्च अंर्तराष्ट्रीय महिला दिवस पर मुझे सम्मानित किया गया।
आज उसी काम के बल पर मैंने दुबारा अपना खुद का घर बना लिया है। और यही नहीं जो औरतें मेरे साथ इस काम में जुड़ी थी उन्होंने भी खुद का घर खरीद लिया। उनकी मेहनत और इमानदारी से मैंने कमाया और मेरी वजह से उन्होंने। आज भगवान की कृपा से काम बहुत अच्छा चल रहा है। आटा गूंदने की और खाखरा पैकिंग की मशीनें भी खरीद ली हैं। और यही नहीं अपनी मेहनत की कमाई से आज मैं विमान से यात्राएं करती हूं जो मैं कभी सपने में भी नहीं सोच सकती थी मुझे मेरी मेहनत ने आज वो सब दे दिया। दोनों लड़कियों की शादी हो गई और बेटा एम.बी.ए कर रहा है। और मैं आज जिस मुकाम तक पहुंची हूँ उसमें मेरे पति का भरपूर योगदान रहा। मैं अपने इस बिज़नेस को और कामयाब होते हुए देखना चाहती हूं।
मैं आजकल के माता-पिता से बस यही कहना चाहूंगी कि अपनी बेटी को शिक्षा के साथ-साथ मेहनत का संस्कार भी अवश्य दें। क्यूंकि मैंने मेरी ज़िदगी में यह अनुभव किया है कि एक औरत की असली ताकत है उसकी मेहनत जिसके सामने तकदीर और भगवान दोनों को हार माननी पड़ती है।